Uttarakhand Day 09 Nov : आज देवभूमि उत्तराखंड अपना स्थापना दिवस मना रहा है। वैसे तो स्थापना दिवस किसी भी राज्य के लिए उसके भौगोलिक सीमा का राजनीतिक निर्धारण मात्र है। लेकिन उत्तराखंड जैसे राज्यों की भौगोलिक सीमा से कहीं ज्यादा समृद्ध है सांस्कृतिक सीमा। सांस्कृतिक सीमा भी ऐसी कि भारत के पूरातन इतिहास को अपने आधार स्तंभ पर खड़ा रख सके। यहां के पहाड़ी इलाके सिर्फ प्राकृतिक सुंदरता का ही घोतक नहीं बल्कि अपने में मानव को मानस चिंतन और इह लोक से ऊह लोक के बीच के संबंध का तार भी जोड़ते दिख जाएंगे। इस देव भूमि की अपनी भाषा, संस्कृति और जीवन की शैली रही है। कहते हैं जब आप पहाड़ों में जाते हैं तो आप ना इतनी आसानी से इसे अपना पाते हैं और ना ये आप को । जब आप इसके ताल में अपना ताल मिलाते हैं तो यह खुद की गोद में आपको समेट कर ऐसा सुख देती हैं जैसे मां की ममतामयी गोद में कोई नवजात शांत हो कर किलकारियां लेता है।
उत्तराखंड की संस्कृति को किसी एक संस्कृति या समुदाय ने नहीं बल्कि इसे अनेक संस्कृतियों और विभिन्न तत्वों ने सींचा है। आदिकाल से न जाने कितनी पीढ़ियों ने इस सुरम्य हिमालयी क्षेत्र को अपना निवास बनाया है। शास्त्रों, पुराणों में आदिकाल से कभी यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और देवताओं की इस भूमि पर इतिहास के भिन्न-भिन्न काल में अलग-अलग जातियों के अधिकार रहे हैं। किसी को यहाँ के रमणीय स्थानों ने आकर्षित किया तो किसी को यहां के शांत वातावरण ने। कोई यहाँ निवास करने आया तो कोई मोक्ष की लालसा में।
प्राचीन समय के बाद यहां शक, हूण, कोल, मंगोल, यवन, खश सभी ने यहां की रमणीयता का आनंद जरूर लिया है यहां आकर। भिन्न-भिन्न लोगों के आगमन ने यहां एक विशद और विस्तृत संस्कृति को जन्म दिया। चूंकि उत्तराखंड का अधिकतर भाग पहाड़ी क्षेत्र है, इसलिए यहां की संस्कृति, वेशभूषा, खान-पान सभी पहाड़ी अथवा ठंडी जलवायु के अनुरूप है। पौराणिक काल में देवजातियों का निवास स्थान और ऋषिमुनियों की तपोस्थली रहा उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। इतिहासकारों और पौराणिक गाथाओं के अनुसार पौराणिक काल से आज तक इस हिमालयी क्षेत्र में सनातन धर्म का प्रभाव रह फिर बौद्ध धर्म के समय इन पहाड़ों ने उसे भी अपनी गोद में स्थान दिया। सातवीं शताब्दी के आस-पास शंकराचार्य ने इस क्षेत्र में आकर फिर से सनातन धर्म की पुनर्स्थापना की। इसके अलावा यहाँ एक तांत्रिक सम्प्रदाय का भी प्रभाव था जिसे पौन सम्प्रदाय कहते थे। कई विद्वान इसे एक अलग धर्म मानते हैं तो कई इसे सनातन के शैव सम्प्रदाय का एक हिस्सा मानते हैं। यहां देवताओं की पूजा के साथ साथ अपने पूर्वजों की पूजा भी बड़े पैमाने पर की जाती है। वहां आज भी पूरे नियम के साथ देवी-देवताओं के साथ साथ अपने पूर्वजों की पूजा का प्रावधान है। यहाँ पूर्वजों को पूजने का एक अलग तरीका है जिसे जागर कहते हैं। कहते हैं यहां के लोग जागर गान की मदद से इन्हें किसी शरीर में अवतरित कराया जाता है। फिर वे संबंधित समस्याओं का समाधान करते हैं। उत्तराखंड के लोग देवताओं के अलावे लोकदेवतों की पूजा भी बड़े पैमाने पर करते हैं।
भारत के अन्य राज्यों की तरह यहाँ के पकवानों की अपनी विशेषता है। यहां के लोग मोटे अनाज को प्राथमिकता देते हैं। इसके अलावा पहाड़ों की ठंडी जलवायु के कारण यहाँ आदिकाल से ही मांसाहार का प्रचलन रहा है। यहां के भोजन में भट्ट के डुबके, भट्ट का चौसा, गहत की दाल, गहत का फाणु, मडुवे की रोटी, शिशुण का साग, झुंगरू की खीर की अपनी प्रसिद्धि है। क्या आपको पता है उत्तराखंड की आधिकारिक भाषा हिन्दी है और दूसरी संस्कृत। हालांकि यहां की लोकभाषाओं में कुमाउनी, गढ़वाली और जौनसारी भाषाओं की भी अपनी महत्ता है। गढ़वाली, कुमाउनी और जौनसारी संस्कृति का समागम है यह स्थान।