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रैप की असली कहानी छुपी है हमारे साहित्य की पुस्तकों में

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RAP SONGS IN LITERATURE: पिछले एक दशक में बॉलीवुड फिल्म इंडस्ट्री में आपको कई सारे रैप गाने देखने-सुनने को मिले होंगे। आज-कल रैप सॉन्ग्स का क्रेज ऐसा है कि इसे हर किसी की जुबान पर आप सुन सकते हैं। बीते दशक में गजब की पॉपुलैरिटी बटोरी है इसने। बॉलीवुड में काफी चर्चित मूवी रणवीर सिंह अभिनीत फिल्म गली बॉय (Gully Boy) के बाद रैप और रैपर की जिंदगी को लेकर चर्चाएं काफी तेज रही हैं। आज का आलम यह है कि हमारे देश में ही कई ऐसे रैपर हैं जिनकी कमाई लाखों में नहीं बल्कि करोड़ों में है। किस ज़ुबान ने जाने माने रैपर बादशाह और हनी सिंह के रैप कभी नहीं गुनगुनाए होंगे।

हालांकि बॉलीवुड की फिल्मों में रैप गाने का चलन कोई आज का नहीं है। अपने दिमाग पर जरा जोर डालेंगे तो आपको नब्बे के दशक के रैपर का नाम याद आ जाएगा। उनका दौर तब था जब बॉलीवुड की फिल्मों में उदित नारायण, कुमार सानू, लता मंगेशकर और अल्का यागनिक की धाक थी। जी हां हम बात कर रहे हैं बॉलिवुड फिल्मों के पहले रैप सिंगर बाबा सहगल के बारे में। बाबा सहगल ने ही बॉलीवुड में रैप का एक ऐसा ट्रेंड सेट किया कि उनके गाने इंडस्ट्री में धड़ल्ले से छा गए। 1992 में आए एल्बम ठंडा-ठंडा पानी ने तो रिकॉर्ड ही बना डाला।

इन सब के बीच क्या आपको पता है कि भारतीय साहित्य की दुनिया में रैप कोई आज की चीज नहीं है। जी हां, रैप के गाने आज प्रचलन में आए हों लेकिन इससे भी कई सालों पहले ही भारतीय साहित्य जगत में रैप को लिखने की परंपरा थी। और बकायदे इसका अपना एक ग्रामर था। इसको लिखने के नियम थे और सांस्कृतिक अवसरों पर इसे गाने की परंपरा। लेकिन तब के समय में इसे साहित्यिक भाषा में रैप ना कह कर कवित्त कहा जाता था। बिल्कुल राग और रास का मिलन। लेकिन आज के रैप की तरह कोई फूहड़ता नहीं। बल्कि उसमें साहित्यिक पुट कूट-कूट कर भरे रहते थे।

जैसे तुलसीदास रचित एक कवित्त को देखिए-

खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,

बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।

जीविका बिहीन लोग सीधमान सोच बस,

कहैं एक एक नसों, कहां जाईं, का करी

बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,

साँकरे सबै पै, राम ! रावरें कृपा करी।

दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु!

दरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।।

कवित्त लिखते समय क्या है नियम-

साधारण रूप में मुक्तक दण्डकों को ही जो दण्ड की तरह ही बहुत लंबे छन्द होते हैं, उन्हें कवित्त कहते है। यह भी एक प्रकार  वार्णिक छन्दों की श्रेणी में ही आता है। इसपर भी गणों के सारे नियम लागू होते हैं। इसके छंद के प्रत्येक चरण में 16 और 15 के विराम से 31 वर्ण होते है। प्रत्येक चरण का अंतिम वर्ण गुरु होता है। साहित्य की दुनिया में इसे मनहरण” या घनाक्षरी” भी कहते हैं। इसमें 8,8,8,7 वर्णों पर यति रखने का विधान होता है।

जैसे

हरित हरित हार, हेरत हियो हेरात, -16 वर्ण

हरि हाँ नैनी, हरि न कहूँ लहाँ। –15 वर्ण

बनमाली बज्र पर, बरसात बनमाली,

बनमाली दूर दुख, केशव कैसे सहौं।

हृदय कमल नैन, देखि कै कमल नैन,

होहुँगी कमल नैनी, और हौं कहा कहौं।

आप घने घनस्याम, घन ही ते होते घन,

सावन के धौंस धन, स्या बिनु कौन रहौं।

तो आज के समय की जरूरत बस इतनी है कि  हमें हमारी साहित्यिक धरोहरों के बारे में पता होना चाहिए। जब हम अपने साहित्यिक धरोहरों को समझेंगे तो इसका बेहतर इस्तेमाल कर पाएंगे।

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