Home Home-Banner आइए जानें जीवन के 16 संस्कारों के बारे में, क्या है इनकी...

आइए जानें जीवन के 16 संस्कारों के बारे में, क्या है इनकी महत्ता

4422

16 sanskar

16 SANSKAR: प्राचीन काल में हमारे प्रत्येक कार्य संस्कार से आरंभ होता था। बीते समय में संस्कारों की संख्या लगभग चालीस बताई जाती है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, जीवन में व्यस्तताएं बढ़ती गई तो संस्कार स्वत: ही लुप्त होते गए। जिसके बाद यह संशोधित होकर सोलह रह गए।  गौतम स्मृति में कुल चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया है और व्यास स्मृति में इसकी संख्या सोलह बताई गई है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य तौर पर सोलह संस्कारों के बारे में बताया गया है। यह गर्भधारण से लेकर मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि के रूप में अंतिम संस्कार के रूप में वर्णित है।

विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों को लेकर थोड़ा बहुत अंतर है, परन्तु प्रचलित संस्कारों के व्यवस्थित क्रम में उल्लेखित , गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, विधारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्तयेष्टि ही प्रचलन में रहा है। गर्भधारण से लेकर विधारंभ तक के संस्कार को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। पहले तीन संस्कार यानी कि गर्भधान, पुंसवन और सीमन्तोन्नयन को अन्तर्गर्भ संस्कार कहते हैं। इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहा जाता है। गर्भ संस्कारों को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। मान्यता है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आए धर्म और कर्म के दोष को काटने के लिए यह संस्कार किए जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों क गुणाधार संस्कार कहा जाता है।

आइए जानते हैं इन सोलह संस्कारों के बारे में-

गर्भधान-

हमारे शास्त्रों में गर्भधान को सोल्ह संस्कारों में पहला स्थान प्राप्त है।  गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के उपरान्त श्रेष्ठ संतानोत्पत्ति को प्रथम कर्त्तव्य के रूप में बताया गया है। इसके लिए माता-पिता की मन की शुद्धि के लिए यह संस्कार किया जाता है।

पुंसवन-

गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास के लिए इस संस्कार का विधान है। इसे गर्भधारण के दूसरे अथवा तीसरे महीने में किया जाता है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है।

सीमन्तन्नयन-

इस संस्कार में सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती स्त्री की मांग भरती हैं। यह गर्भ धारण के छठे या आठवें महीने में होता है। सीमन्तन्नयन का उद्देश्य गर्भस्थ शिशु एवं मात की रक्षा करना है।

जातकर्म-

नवजात के नालच्छेदन से पूर्व इसे करने का विधान है। दैवी जगत से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बच्चे को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिए स्वर्ण खण्ड से दो बूंद घी और छह बूंद शहद का सम्मिश्रण  चटाया जाता है। इसके बाद ही माता बालक को स्तनपान कराती है।

नामकरण-

जन्म के ग्यारहवें दिन इस संस्कार को किया जाता है। शुरू के दस दिनों को अशौच ( सूतक ) माना जाता है। हालांकि कुछ विद्वान इसे शुभ दिन के हिसाब से करना पसंद करते हैं।

निष्क्रमण-

इस संस्कार का उद्देश्य शिशु को इस ब्रह्म सृष्टि से अच्छी तरह परिचित कराने के लिए तथा धर्म और मर्यादा में रह कर इसका भाग कराने के लिए प्रेरित करना है। निष्क्रमण का अभिप्राय बाहर निकालना है। इसमें शिशु को सूर्य तथा चंद्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। कहते हैं तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण के लिए अनुकूल नहीं होता है।

अन्नप्राशन-

इसका उद्देश्य शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना है। शास्त्रों में अन्न को प्राण कहा गया है। इसलिए इस संस्कार में शिशु जो कि अभी तक दूध पर आश्रित था, को इससे परिचित कराना है।  इसे जन्म के छठे महीने में कराना उचित बताया गया है। शुभ समय देखकर खीर और मिठाई से शिशु को अन्नग्रहण करवाया जाता है।

चूड़ाकर्म-

इसे मुंडन का संस्कार भी कहते हैं।  पहले, तीसरे और पांचवे साल में इसे करने का प्रावधान है। यह शुचिता और बौद्धिक विकास के लिए किया जाता है।

विघारंभ भूत संस्कार-

विधारंभ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरूकुल की परंपरा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिए भेजने से पहले अक्षर बोध कराया जाता था।

कर्णवेध-

इसका आधार पूर्णतया वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इसका उद्देश्य है। यह सौन्दर्य बोध यानी कि आभूषण के लिए जाता था।

यज्ञोपवीत-

यह बौद्धिक विकास के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। प्राचीन काल म गुरूकुल की परंपरा थी। उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में इसे किया जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिए गुरूकुल जाता था। इसके मार्फत ही ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी।

वेदारंभ-

इसमें वेद के अध्ययन के द्वारा ज्ञान को अपने अंदर समाविष्ट करना होता है। ब्रह्मचर्य का पालन एवं संयमित जीवन की परीक्षा के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे।

केशांत-

गुरूकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष इस संस्कार को करने का विधान है। यह मुख्यत: गुरूकुल में विदाई लेते समय की जाती थी। इस संस्कार के उपरांत शिक्षा से संबंधित  उपाधि दी जाती थी।

समावर्तन-

यह संस्कार बच्चे से परिपक्वता की ओर उसे युवा बनाता है। इस संस्कार के बाद वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता है।

विवाह-

यह जीवन के महत्वपूर्ण संस्कारों में से एक है। यही से आप गृहस्थ जीवन की शुरूआत होती है। हमारे शास्त्रों में यज्ञोपवीत से समावर्तन तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का विधान है। शास्त्रों में आठ प्रकारों के विवाह का उल्लेख है-ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवे पैशाच।

अन्तयेष्टि-

ऊपर के सारे संस्कार जीवन रहते किया जाता है, लेकिन यह एक मात्र संस्कार है जिसे जीवन के बाद करने का विधान है। इसमें मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने के बारे में बताया गया है। जीवन के इहलोक और परलोक के बीच का संबंध इसी संस्कार से जुड़ा है।

और पढ़ें-

सैकड़ों हत्याओं का गवाह, दिल्ली का खूनी दरवाजा

वीर बाल दिवस है, कम उम्र में शौर्य की पराकाष्ठा..

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here