HISTORY OF HEAD-DRESS IN INDIA: भारत में पगड़ी पहनना शुरू से ही मनुष्य के लिए एक अनिवार्य और अभिन्न अंग की तरह रहा है। चाहे वह किसी भी धर्म का हो या किसी भी समाज का। क्या आपको पता है कि पगड़ी का इतिहास हमारी सभ्यता में लगभग 10 हजार ईसा पूर्व पुराना है। पोशाक के रूप पगरी जिसे अंग्रेजी में हेड-ड्रेस भी कहते हैं, हमारे जिंदगी में बहुत पुराने अतीत से आई थी। ऐतिहासिक तथ्यों के विश्लेषण के बाद यह पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल के पुरुष खुद को प्राकृतिक बाधाओं से बचाने के लिए इसका इस्तेमाल किया करते थे।
इतिहास में पगड़ी
जैसे कि ऊपर कहा गया है, प्रागैतिहासिक काल में पगड़ी, पुरूषों द्वारा खुद को प्राकृतिक बाधाओं से बचाने के लिए इस्तेमाल में लिया जाता था। हालांकि समय के साथ यह आत्म-सुंदरता की इच्छा के साथ विकसित जीवन पद्धति में बदल गया। इतिहास की माने तो मनुष्य पाषाण युग में अपने हाथों को मक्त रखने के लिए कमर के पास एक अंगूठी जैसी गोल संरचना जैसी कुछ प्राकृतिक उपयोग से बनी चीज का इस्तेमाल करते थे। समय के साथ यह गोल संरचना कमर से ऊपर सर तक पहुंच गई।
पगड़ी का ऐतिहासिक साक्ष्य
पगड़ी यानी कि हेड-ड्रेस का पहला संदर्भ हमें प्रागैतिहासिक शैल चित्रों ( Rock Painting ) में देखने को मिलती है। आज से लगभग 30 हजार साल पहले शिकारियों द्वारा बनाए गए इन गुफा-चित्रों में मनुष्यों को पगड़ीनुमा कुछ पहने दिखाया गया है। कुमांऊ, भीमबेटका, केरल का रॉक पेटिंग में शिकार और नृत्य के समय इसे पहने दिखाया गया है।
वैदिक समय में पगड़ी की महत्ता
ऋगवेद में पगड़ी को यज्ञ आदि के दौरान पहना जाता था। यह अलग-अलग रंगो का होता था। उत्तरवैदिक काल में ब्राहम्णों को राजा से ऊपर रखा जाता था। इसलिए राजा द्वारा सिर के वस्त्र आदि को यज्ञ के दौरान ब्राहम्णों के पैरों में रखने का विधान था, जो कि राजा का ब्राह्मणों के प्रति समर्पण भाव को दिखाता था। राजसूय यज्ञ के दौरान तो एक विशेष पद्धति से पगड़ी को पहना जाता था। शिष्यों से अपने शिक्षकों के पास जाते समय अपने पगड़ी उतारने के लिए कहते थे, जो कि शिक्षकों के प्रति सम्मान का प्रतीक हुआ करता था।
इस्लामी युग में पगड़ी
भारत में इस्लामिक युग में सिर के पोशाक यानी कि पगड़ी की शैली में कई बड़े बदलाव आए। मुसलमानों ने पगड़ी का अपना रूप जो कि फ़ारसी और अरबी संस्कृति के अनुरूप था, लेकर आए। इनके समय में पहने जानी वाली पगड़ी चौड़ी, उलटी किनारी वाली शंक्वाकार, त्रिकोणीय या नुकीली हुआ करती थी। कहते हैं मुगल शासक अकबर ने पगड़ी पहनने को काफी महत्व दिया और पगड़ी की मुगलई शैली को बदलकर एक हिंदुस्तानी शैली लाया, ताकि आम जन भी पगड़ी पहनने को प्रोत्साहित हों।
हालांकि, बाद में औरंगजेब ने गैर-मुस्लिम आबादी द्वारा पगड़ी पहनने को प्रतिबंधित करने लगा। उसका तर्क था कि पगड़ी केवल शासक वर्ग को श्रेष्ठता के कारण पहनना चाहिए। चूंकि गैर-मुस्लिम वर्ग शासक नहीं शासित था, इसलिए उन्हें यह पहनने का अधिकार नहीं है। जिसके कारण गैर मुस्लिम वर्गों द्वारा पगड़ी पहनने की अपनी पवित्र विरासत और सम्मान को त्यागना पड़ा।
इस तरह के प्रतिबंधों के बाद भी भारत में सिक्ख, राजपूत, जाट, मराठाओं ने मजबूती से इसे अपने संस्कृतियों में पहनना जारी रखा। इस गौरवशाली विरासत के लिए ना जानें कितने युद्ध लड़ें। आलम तो यह था कि सिक्खों को पगड़ी पहनने की प्रथा को बचाने कि लिए कई अमानवीय अत्याचार को सहना पड़ा था।
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