Home Home-Banner भारतीय खगोल के गोल गोल रहस्य…

भारतीय खगोल के गोल गोल रहस्य…

3749

indian khagol

मनुष्य की जिंदगी जब से शुरु हुई है तब से वह आकाश के तरफ अपना चेहरा करके ना जाने कितनी मिन्नतें मांगी होगी। सुख और दुख बताए होंगे। पूनम की रात में चांद को निहारा होगा तो काली घनी अंधेरे में अपनी परछाई को ढ़ूंढ़ता होगा। कितना कौतूहल भरा होगा ना वह वक्त जब हम मानव जीवन ने विज्ञान को नहीं जाना था। अंधेरे भी हमें इतान डरा जाते थे कि हमने कई भयावह चीजों की कल्पना तक कर ली। हरिवंश राय बच्चन ने अपने निशा-आमंत्रण में बताया भी है कि कैसे हमने अपनी भावना को व्यक्त करने के लिए आकाश से प्रार्थना की और उसने हमारी प्रार्थना सुन आकाश से एक ईश्वर के अंश को धरती पर भेजा। लेकिन ईश्वर के उस अंश को भी मानवीय भावनाओं को झेलने की हिम्मत नहीं थी और आगे जाकर आकाश ने मानवीय भावनाओं को झेलने के लिए एक ऐसी चीज भेजी कि उस पर किसी भी भावना का कोई भी असर नहीं हो रहा था वह हर भावना को यथास्थिति सह लेता था। जी हां वह चीज थी पत्थर।

मानवीय सभ्यता ने जब अपने प्रगति के पहिये  को समय के साथ घुमाया तो उसके सामने आकाश के बहुत सारे रहस्य खुलने लगें। इन्हीं रहस्यों के अध्ययन का विस्तार आगे चलकर खगोलशास्त्र की परिकल्पना में बदल गया। मानव ने समय के साथ अपने जानने की मूल आकांक्षा के कारण नित नए -नए रहस्य खोजने लगा और सुलझाने भी लगा। भारतीय संस्कृति के मानसिक चिंतन में शुरू से ही आत्मा और शरीर के अद्वैत के विचार ने नश्वर और नियत की  परिकल्पना से ब्रह्मांड में आत्मा के मिलन और शरीर मात्र का विनाश ने ही खगोल के चिंतन को जन्म दिया। भारतीय संस्कृति में चक्र की अवधारणा भी एक पहलू रहा है जो मनुष्य और प्रकृति के आध्यात्मिक एकीकरण का घोतक है। भारतीय संस्कृति में खगोलशास्त्र की प्रमुख गतिविधि थी राशि चक्र में सूर्य चंद्रमा  और ग्रह की गति के आधार पर कालगणना और पंचांग संबंधी गणना। भारत में खगोल की जानकारियां कोई आज की नहीं बल्कि वैदिक काल से ही है।

indian khagol

क्या है वैदिक काल का जुड़ाव खगोलशास्त्र के अध्ययन में-

वैदिक समय में ज्योतिषीय गणना को खगोल के अध्ययन का आधार माना जाता था। सूर्य और चंद्रमा की स्थिति और मानव जीवन, कृषि, पर्व-त्यौहार, अनुष्ठान को हमेशा से ही गणना के आधार पर निकाला जाता था । माह की गणना का आधार चंद्रमा था । संस्कृत में चंद्रमा को ‘मासकृत’ कहा जाता था ।जिसका अर्थ ही था माह की गणना का आधार । गौरतलब है कि अंग्रेजी शब्द मन्थ ‘मूनेथ’ से बना है ।उर्दू में भी माह का मतलब चांद ही होता है। इसका अर्थ यह है कि महीना के गणना का आधार चंद्रमा ही रहा है। हालांकि महीने की गणना उस व्क्त भी और आज भी दो तरीकों से ही की जाती है-एक अमावस्या पर समाप्त होता है और दूसरा पूर्णिमा पर।

महीने का नाम उस नक्षत्र से निर्धारित होता था जिसमें पूर्णिमा का चांद दिखाई दैता था। 12 चांद मासों को 2-2 महीने की 6 त्रृतुओं में बांटा गया था। वैदिक साहित्य के समय ग्रीष्म व शीत दोनों संक्रान्तियों की जानकारी उपलब्ध थी । प्रत्येक वर्ष को 6-6 माह के दो अर्धाशों में बांटा गया था और प्रत्येक माह को दो भागों में-एक कृष्ण पक्ष और दूसरा शुक्ल पक्ष। प्रत्येक पक्ष 15 तिथियों का होता था। वार्षिक चक्र से आगे बढ़कर 5 वर्ष के एक चक्र की कल्पना उस समय कर ली गई थी। वेदांग ज्योतिष में 5 वर्ष के एक चक्र में 2 अधिमास जोड़ने का भी प्रावधान था। पहला 5वीं संक्रान्ति के अन्त में और दूसरा 10वीं संक्रांति के अंत में।

khagol

वेदांग ज्योतिष के समय से आर्यभटीय की रचना के बीच भारतीय ज्योतिष पर बाहरी प्रभाव स्पष्ट दिखता है। यूनानी और रोमन का ज्ञान इस समय तक भारत पहुंच गया था। आर्यभटीय की रचना 5 वीं ई.पू. में हुई थी। यह एक गणित आधारित ग्रंथ था । सौर पितामह, वाशिष्ट, पौलिष और रोमक उस समय की खगोल आधारित पुस्तकें थीं।

सम्राट विक्रमादित्य के समय में भारत की नगरी उज्जैन खगोल अध्ययन का एक उन्नत शहर बन कर उभरा और कालगणना का केन्द्र बन गया । यहां के ज्योतिर्लिंग को इसलिए महाकाल कहा जाता है। चूकि उज्जैन ठीक कर्क रेखा के ऊपर स्थित है इसलिए भी यह उस वक्त  के मानक समय का केन्द्र था।

और पढ़ें-

कौन थीं लोपामुद्रा..

अचार का विचार आख़िर आया कहां से..जानिए हम से

कौन थी भारत की मोनालिसा….बणी-ठणी

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here