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क्या हुआ जब सूफी बुल्ले शाह ने अपने मुरशद में रसूल अल्ला को देखा

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BULLEH SHAH

BULLEH SHAH: पंजाब के मिट्टी की सौंधी गंध में गूंजता एक नाम। जिसने भारतयी सिनेमा, संगीत और टेलीविजन पर अपना एक अलग छाप छोड़ा। आधुनिक समय के एक गायक रब्बी शेरगील का एक गाना तो आपकी जुबान पर कभी ना कभी आया तो जरूर होगा, “बुल्ला की जाना मैं कौन”। बॉलीवुड फिल्म रॉकस्टार के गाने “कतया करूं” में भी आता है इनका नाम। जी हां हम बात कर रहे हैं, धरती से उठकर आकाश में छा गए भारतीय सूफी परंपरा के महान कवि या सूफी बुल्ले शाह की।

बुल्ले शाह की लोकप्रियता ना सिर्फ मुसलमानों में थी बल्कि इसे हिन्दू और सिखों ने भी सर आंखों पर रखा। आम लोग बुल्ले शाह को परमात्मा का सेवक, दोनों लोकों के रहस्य को जानने वाला और अनुभव तथा ज्ञान का सम्राट कह कर पुकारते थे। पंजाब की मिट्टी को अध्यात्म की एक अलग सुगंध से सराबोर करने वाला यह सूफी संत की बातों ने हजारों-लाखों लोगों के जीवन और दर्शन को प्रभावित किया और सही दिशा देने की कोशिश की। जी हां बुल्ले शाह के कहे गये दोहे आज भी भारत, पाकिस्तान और अन्य जगह के लोगों के जुबान पर सुनने को मिल जाएंगे। इनके ज्ञान और भाईचारे के प्रेम ने लोगों के अंतर मन को जगाने का काम किया है।

बुल्ले शाह का जीवन

पंजाब के महान सूफी विचारक बुल्ले शाह का मूल नाम अब्दुल्लाशाह था। आगे चलकर प्यार से लोग इन्हें बुल्ला शाह या बुल्ले शाह बुलाने लगे। बुल्ले शाह का जन्म 1680 में बड़े ऊंच गीलानियों में हुआ था। इनके पिता शाह मुहम्मद जिन्हें अरबी, फारसी दोनों का अच्छा खासा ज्ञान था, आजीविका के लिए कसूर (पाकिस्तान) के पास बस गए। बुल्ले की अरबी, फारसी के साथ-साथ सूफी में भी गहरी दिलचस्पी थी

पिता के नेक जीवन का असर इन पर भी पड़ा। सूफी ग्रंथों के गहरे अध्ययन और परमात्मा के दर्शन की तड़प ने इन्हें फकीर हजरत शाह कादरी तक खिंच लिया। हजरत शाह का डेरा इस वक्त लाहौर में था। और वे जाति से अराई यानी कि खेती-बाड़ी करने वाले कौम से थे। बुल्ले शाह का परिवार इस बात से खासा दुखी था कि उन्होंने हजरत शाह जो कि एक छोटी जाति से थे, को अपना गुरु चुना।

क्या हुआ जब बुल्ले शाह को मदीना शरीफ की जियारत की इच्छा हुई

कहते हैं कि एक बार जब बुल्ले शाह को इच्छा हुई कि वह मदीना शरीफ की जियारत(दर्शन) को जाए। तो इस बाबत उन्होंने अपने गुरु से जाने की बात बताई। उनके गुरु ने उनसे वहां जाने का कारण पूछा। तो बुल्ले शाह ने कहा कि रसूल अल्ला(भगवान तुल्य) ने फरमाया है कि जो कि मुहम्मद की कब्र पर जियारत करता है, उसे उन्हें जिंदा देखने के बराबर का पुण्य मिलता है। लेकिन गुरु ने उन्हें तीन बाद इसकी इजाजत देने की बात की। फिर इन तीन दिनों के दरम्यान बुल्ले शाह ने पाया कि उन्हें रसूला अल्ला ने अपने गुरु हजरत शाह को बुलाने को कहा और जब बुल्ले शाह अपने मुरशद(गुरु) को बुला लाया तो उन्होंने देखा कि उनके सामने बैठा उनका मुरशद और रसूल अल्ला में कोई फर्क ही नहीं। दोनों बिल्कुल एक जैसे दिख रहे थे। बुल्ले शाह को अब समझ में आ गया कि उनका मुरशद (गुरु) और रसूल दोनों बराबर हैं। गुरु का दर्जा भगवान के बराबर होता है यह तो हमने कई दोहों में पढ़ा ही है।

बुल्ल शाह का एक दोहा देखें-

उस दा मुख इक जोत है, घुंघट है संसार।

घुंघट में ओह छुप्प गया, मुख पर आंचल डार।।

उन को मुख दिखलाए हैं, जिन से उस की प्रीत।

उनको ही मिलता है वोह, जो उस के हैं मीत।।

ना खुदा मसीते लभदा, ना खुद विच का’बे।

ना खुदा कुरान किताबां, ना खुदा निमाज़े।।

बुल्लया औंदा साजन वेख के, जांदा मूल ना वेख।

मारे दरद फ़राक दे, बण बैठे बाहमण शेख।।

बुल्लया अच्छे दिन तो पिच्छे गए, जब हर से किया न हेत।

अब पछतावा क्या करे, जब चिड़ियां चुग गईं खेत।।

 

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