नई दिल्ली। आज कल भारत अंतरिक्ष की उड़ान में अपना एक अलग मुकाम बना रहा है। हाल में भेजे गये चंद्रयान और आदित्य एल- 1 मिशन ने इसे दुनिया की उस श्रेणी में ला कर खड़ा कर दिया है जहां से आज भारत सारे ज़माने के सामने अपना सर उठा कर चारों दिशोओं में विजय विगुल बजा रहा है।
लेकिन क्या आपको पता है कि भारत को इस मुकाम तक पहुंचाने वाली संस्थान जिसे हम भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान(इसरो) के नाम से जानते हैं, का अपना भी एक सफ़र रहा है। आईए जानें इसरो के इस सफ़र को कि आखिर इसरो ने यहां तक का अपना सफ़र कैसे पूरा किया।
आज़ादी से पहले इसरो भ्रूण में
कोई भी संस्थान एकाएक बन कर नहीं खड़ा हो जाता। उसके पीछे ना जानें कितनी सालों की मेहनत,लगन और अथक परिश्रम लगता है। नींव में होते हैं सपनें । और ये सपने ना जाने कितनी दिमागों को कई सालों तक ना सोने देते हैं और ना ही आराम। इन्हीं सपनों को पूरा करने के लिए भारत जो कि तब का ब्रिटिश भारत में देशवासी लगे थें।
सन 1920 में वैज्ञानिक एस के मित्रा ने आयन मंडल रेडियो उर्जा पर काम कर रहे थे। इसके बाद सी वी रमण और मेघनद साहा ने अपने योगदान से इससे जुड़ी अन्वेषण को आगे बढ़ाया। 1945 में विक्रम साराभाई ने फिजिकल रिसर्च लेबोरेट्री और होमी भाभा ने टाट इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च बना कर सपनों को पंख दिया।
आज़ादी के बाद का इसरो और अंतरिक्ष
1947 में भारत के आज़ादी के बाद सपनों ने और तेजी से उड़ना शुरू कर दिया । 1961 में अंतरिक्ष अनुसंधान को भारत के परमाणु उर्जा विभाग के अंदर ही देख रेख में रखा गया।इस विभाग को होमी जहांगीर भाभा देख रहे थें। इसके एक साल के बाद ही अर्थात 1962 में अंतरिक्ष अनुसंधान की राष्ट्रीय समिति को सारभाई के नेतृत्व में बनाया गया और इसकी वास्तविक नींव डाली गयी।इसरो का गठन 15 अगस्त 1969 को हुआ।
आखिर कौन था इसरो का पहला उपग्रह ?
अब भारत के सपनों को पंख लग चुके थे और ये खुले आकाश में बेपरवाह उड़ना चाहता था । अपनी अथक मेहनत के बाद 19 अप्रैल 1975 को भारत अपना पहला उपग्रह जिसका नाम आर्यभट्ट था को रूस की मदद से अंतरिक्ष की कक्षा में पहुँचाया। इसे खगोल विज्ञान के साथ साथ एक्स-रे और सौर भौतिकी के अध्ययन के लिए बनाया गया था। क्या आपको पता है कि केवल 5 दिनों के बाद ही संपर्क नहीं होने के कारण यह अंतरिक्ष में कहीं खो गया था। आपको जानकर काफी आश्चर्य होगा कि इस उपग्रह को भारत ने अपने दो रूपये के नोट के पिछले हिस्से में छापा था।