Home मजेदार कान्हा की बांसुरी में आज भी कायम है जलवा

कान्हा की बांसुरी में आज भी कायम है जलवा

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टीम हिन्दी

बाँसुरी की अभिव्यक्त शक्ति अत्यंत विविधतापूर्ण है, उससे लम्बे, ऊंचे, चंचल, तेज़ व भारी प्रकारों के सूक्ष्म भाविक मधुर संगीत बजाया जाता है। लेकिन इतना ही नहीं, वह विभिन्न प्राकृतिक आवाज़ों की नक़ल करने में निपुण है, उदाहरण के लिये उससे नाना प्रकार के पक्षियों की आवाज़ की हू-ब-हू नक्ल की जा सकती है। बाँसुरी की बजाने की तकनीक कलाएं समृद्ध ही नहीं, उस की किस्में भी विविधतापूर्ण हैं, जैसे मोटी लम्बी बांसुरी, पतली नाटी बांसुरी, सात छेदों वाली बांसुरी और ग्यारह छेदों वाली बांसुरी आदि देखने को मिलते हैं और उस की बजाने की शैली भी भिन्न रूपों में पायी जाती है।

‘बाँसुरी’ अत्यंत लोकप्रिय सुषिर वाद्य यंत्र माना जाता है, क्योंकि यह प्राकृतिक बांस से बनायी जाती है, इसलिये लोग उसे बांस बांसुरी भी कहते हैं। बाँसुरी बनाने की प्रक्रिया कठिन नहीं है, सबसे पहले बांसुरी के अंदर के गांठों को हटाया जाता है, फिर उस के शरीर पर कुल सात छेद खोदे जाते हैं। सबसे पहला छेद मुंह से फूंकने के लिये छोड़ा जाता है, बाक़ी छेद अलग अलग आवाज़ निकालने का कार्य देते हैं।बांसुरीवादक को एक फ्लूट प्लेयर, एक फ्लाउटिस्ट, एक फ्लूटिस्ट, या कभी कभी एक फ्लूटर के रूप में संदर्भित किया जाता है। बांसुरी पूर्वकालीन ज्ञात संगीत उपकरणों में से एक है। करीब 40,000 से 35,000 साल पहले की तिथि की कई बांसुरियां जर्मनी के स्वाबियन अल्ब क्षेत्र में पाई गई हैं। यह बांसुरियां दर्शाती हैं कि यूरोप में एक विकसित संगीत परंपरा आधुनिक मानव की उपस्थिति के प्रारंभिक काल से ही अस्तित्व में है।

प्राचीनकाल में लोक संगीत का प्रमुख वाद्य था बाँसुरी। मुरली और श्री कृष्ण एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। मुरली के बिना श्रीकृष्ण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उनकी मुरली के नाद रूपी ब्रह्म ने सम्पूर्ण चराचर सृष्टि को आलोकित और सम्मोहित किया। कृष्ण के बाद भी भारत में बाँसुरी रही, पर कुछ खोयी खोयी सी, मौन सी। मानो श्रीकृष्ण की याद में उसने स्वयं को भुला दिया हो, उसका अस्तित्व तो भारत वर्ष में सदैव रहा। वह कृष्ण प्रिया थी, किंतु श्री हरी के विरह में जो हाल उनके गोप गोपिकाओ का हुआ कुछ वैसा ही बाँसुरी का भी हुआ। युग बदल गए, बाँसुरी की अवस्था जस की तस रही, युगों बाद में पंडित पन्नालाल घोष जी ने अपने अथक परिश्रम से बांसुरी वाद्य में अनेक परिवर्तन कर, उसकी वादन शैली में परिवर्तन कर बाँसुरी को पुनः भारतीय संगीत में सम्माननीय स्थान दिलाया। लेकिन उनके बाद पुनः: बाँसुरी एकाकी हो गई। वर्तमान समय में हरिप्रसाद चौरसिया जी का बाँसुरी वादन विश्व प्रसिद्ध है।

बांसुरी की कुछ विस्तृत श्रेणियां हैं। ज़्यादातर बांसुरियों को संगीतकार या वादक ओठ के किनारों से बजाता है। हालांकि, कुछ बांसुरियों, जैसे विस्सल, जैमशोर्न, फ्लैजिओलैट, रिकार्डर, टिन विस्सल, टोनेट, फुजारा एवं ओकारिना में एक नली होती है जो वायु को किनारे तक भेजती है (“फिपिल” नामक एक व्यवस्था). इन्हें फिपिल फ्लूट कहा जाता है। फिपिल, यंत्र को एक विशिष्ट ध्वनि देता है जो गैर-फिपिल फ्लूटों से अलग होती है एवं यह यंत्र वादन को आसान बनाता है, लेकिन इस पर संगीतकार या वादक का नियंत्रण कुछ कम होता है।

बगल से (अथवा आड़ी) बजायी जाने वाली बांसुरियों जैसे कि पश्चिमी संगीत कवल, डान्सो, शाकुहाची, अनासाज़ी फ्लूट एवं क्वीना के मध्य एक और विभाजन है। बगल से बजाई जाने वाले बांसुरियों में नलिका के अंतिम सिरे से बजाये जाने की के स्थान पर ध्वनि उत्पन्न करने के लिये नलिका के बगल में छेद होता है। अंतिम सिरे से बजाये जाने वाली बांसुरियों को फिपिल बांसुरी नहीं समझ लेना चाहिये जैसे कि रिकॉर्डर, जो ऊर्ध्ववत बजाये जाते हैं लेकिन इनमें एक आंतरिक नली होती है जोकि ध्वनि छेद के सिरे तक वायु भेजती है।

बांसुरी एक या दोनों सिरों पर खुले हो सकते हैं। ओकारिना, जुन, पैन पाइप्स, पुलिस सीटी एवं बोसुन की सीटी एक सिरे पर बंद (क्लोज़ एंडेड) होती है। सिरे पर खुली बांसुरी जैसे कि कंसर्ट-बांसुरी एवं रिकॉर्डर ज्यादा सुरीले होते हैं अतएव वादक के लिये बजाने में अधिक लोचशील तथा अधिक चटख ध्वनि वाले होते हैं। एक ऑर्गन पाइप वांछित ध्वनि के आधार पर खुला या बंद हो सकता है।

Kanha ki basuri me aaj bhi kayam hai jalwe

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