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संतूर एक वाद्य यंत्र है. संतूर का भारतीय नाम ‘शततंत्री वीणा’ यानी सौ तारों वाली वीणा है जिसे बाद में फ़ारसी भाषा से संतूर नाम मिला. भारतीय संदर्भ में बात करें, तो संतूर मूल रूप से कश्मीर का लोक वाद्य यंत्र है, और इसे सूफ़ी संगीत में इस्तेमाल किया जाता था. संतूर वादक इसे बजाने के लिए अपने हाथों का बड़ी सफाई के साथ प्रयोग करते हैं. संगीत के इस यंत्र को बजाने के लिए वादक आगे से मुड़ी हुई डंडियों का प्रयोग करता है. शिव कुमार शर्मा भारत के प्रसिद्ध संतूर वादक है.
संतूर की उत्पत्ति लगभग 1800 वर्षों से भी पूर्व ईरान में मानी जाती है बाद में यह एशिया के कई अन्य देशों में प्रचलित हुआ जिन्होंने अपनी-अपनी सभ्यता और संस्कृति के अनुसार इसके रूप में परिवर्तन किए. संतूर लकड़ी का एक चतुर्भुजाकार बक्सानुमा यंत्र है, जिसके ऊपर दो-दो मेरु की पंद्रह पंक्तियाँ होती हैं. एक सुर से मिलाये गये धातु के चार तार एक जोड़ी मेरु के ऊपर लगे होते हैं. इस प्रकार तारों की कुल संख्या 60 होती है.
एक साक्षातकार में पंडित शिवकुमार शर्मा ने बताया कि इनके पिता ने इन्हें तबला और गायन की शिक्षा तब से आरंभ कर दी थी, जब ये मात्र पाँच वर्ष के थे. इनके पिता ने संतूर वाद्य पर अत्यधिक शोध किया और यह दृढ़ निश्चय किया कि शिवकुमार प्रथम भारतीय बनें जो भारतीय शास्त्रीय संगीत को संतूर पर बजायें. तब इन्होंने 13 वर्ष की आयु से ही संतूर बजाना आरंभ किया और आगे चलकर इनके पिता का स्वप्न पूरा हुआ। इन्होंने अपना पहला कार्यक्रम बंबई में 1955 में किया था.
शिवकुमार शर्मा संतूर के महारथी होने के साथ साथ एक अच्छे गायक भी हैं. एकमात्र इन्हें संतूर को लोकप्रिय शास्त्रीय वाद्य बनाने में पूरा श्रेय जाता है. इन्होंने संगीत साधना आरंभ करते समय कभी संतूर के विषय में सोचा भी नहीं था, इनके पिता ने ही निश्चय किया कि ये संतूर बजाया करें. इनका प्रथम एकल एल्बम 1960 में आया. 1965 में इन्होंने निर्देशक वी शांताराम की नृत्य-संगीत के लिए प्रसिद्ध हिन्दी फिल्म झनक झनक पायल बाजे का संगीत दिया.
संतूर वादक अभय सोपोरी की मानें, तो अक्सर लोग इसे पर्सियन वाद्य यंत्र बताते हैं. जबकि सच तो यह है कि संतूर पूरे विश्व को कश्मीर की देन है और कश्मीर के कण-कण में संतूर बसा हुआ है. सौ तारों वाले इस वाद्य यंत्र को शत तंत्र वीणा भी कहते हैं. इसकी चर्चा तीसरी और चैथी शताब्दी में भी मिलती है. यह एक ऐसा वाद्य यंत्र है जिसे सुनने के बाद आप खुद को कश्मीर की वादियों में होने का अहसास मिलेगा. संतूर वादन की परंपरा 300 सालों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है. पहले शैव परंपरा और उसके बाद 14 वीं शताब्दी में सूफिज्म आने के बाद इसका स्वरूप काफी बदला.
अभय सोपोरी ने कहा कि मेरे दादा जी पंडित शंभूनाथ सोपोरी ने अपनी पूरी जिंदगी संगीत की सेवा में गुजार दी. उनके बारे में पूरे कश्मीर में यह कहावत प्रसिद्ध थी कि जो उनके साथ एक बार बैठ जाता था, वह कम से कम एक बंदिश सीख ही लेता था. इसके अलावा मेरे पिता जी पंडित भजन सोपोरी ने संतूर को एक नया आयाम दिया. वे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने महज पांच साल की उम्र में अपना पहला कंसर्ट दिया था, और छह साल की उम्र में उन्होंने रेडियो के लिए प्रोगाम किया था.
kashmir ka log vadh yantr hai santur