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आर्गेनिक खेती का बढ़ता जोर

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टीम हिन्दी

रसायनों के दुष्प्रभाव से विश्व में जलवायु परिवर्तन और प्रकृति के पर्यावरण में असंतुलन उत्पन्न हो गया है और मानवों पर भी गंभीर दुष्प्रभाव देखे गए हैं। धरती मां के स्वास्थ्य, सतत उत्पादन, आमजन को सुरक्षित और पौष्टिक खाद्यान के लिए जैविक कृषि आज राष्ट्रीय और वैश्विक आवश्यकता है। भारत सरकार इस बात को स्वीकार करती है कि पिछले कुछ दशकों में खेतों में रासायनिक खाद के अंधाधुंध उपयोग ने यह सवाल पैदा कर दिया है कि इस तरह हम कितने दिन खेती कर सकेंगे? रासायनिक खाद युक्त खेती से पर्यावरण के साथ सामाजिक-आर्थिक और उत्पादन से जुड़े मुद्दे भी हैं जो हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं।

यदि हम इन रासायनों के अंधाधुंध प्रयोग से पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि इन सारे रासायनिक खादों का बड़ा भाग मिट्टी, भूजल, हवा और पौधों में जा रहा है। यह छिड़काव के समय हवा के साथ दूर तक अन्य पौधों को प्रदूषित कर देते हैं। भूमि में प्रवेश करने वाले ये रसायन भूजल में मिलकर, पानी के अन्य श्रोतों को भी प्रदूषित कर देता है।

देश में वर्तमान में 22.5 लाख हेक्टेयर जमीन पर जैविक खेती हो रही है, जिसमें परंपरागत कृषि विकास योजना से 3,60,400 किसान को लाभ पहुंचा है। इसी तरह पूर्वोत्तर राज्यों के क्षेत्रों में जैविक कृषि के तहत 50,000 हेक्टेयर क्षेत्र को कवर करने का लक्ष्य है। अब तक 45863 हेक्टेयर क्षेत्र को जैविक योग्य क्षेत्र में परिवर्तित किया जा चुका है और 2406 फार्मर इटेंरेस्ट ग्रुप (एफआईजी) का गठन कर लिया गया है, 2500 एफआईजी लक्ष्य के मुकाबले 44064 किसानों को योजना से जोड़ा जा चुका है।

साठ के दशक में हमारे देश में हरित क्रान्ति के दौरान फसल उत्पादन में रासायनिक उर्वरकों का बहुतायत में उपयोग प्रारम्भ हुआ| हरित क्रान्ति के तत्कालिक परिणामों मशीनीकरण और रासायनिक खेती से जितना आर्थिक लाभ किसानों को मिला उससे कई अधिक किसानों ने खोया है| प्रारम्भ में रासायनिक उर्वरकों के फसलोत्पादन में चमत्कारिक परिणाम मिले किन्तु बाद में इसके दुष्परिणाम स्पष्ट दिखाई देने लगे, जैसे- उत्पादन में कमी, जल स्त्रोत में कमी, उत्पादन लागत में बढ़ोतरी, पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि आदि|

ऑर्गेनिक या जैविक खेती कृषि की वह पद्धति है, जिसमें स्वच्छ प्राकृतिक संतुलन बनाये रखते हुए, मृदा, जल एवं वायु को दूषित किये बिना दीर्घकालीन और स्थिर उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं| इसमें मिट्टी को एक जीवित माध्यम माना जाता है, जिसमें सूक्ष्म जीवों जैसे- रायजोवियम, एजोटोबैक्टर, एजोस्पाइरियम, माइकोराइजा एवं अन्य जीव जो मिट्टी में उपस्थित रहते हैं, की क्रियाओं को बढ़ाने और दोहन करने के लिए कार्बनिक तथा प्राकृतिक खादों का गहन उपयोग किया जाता है|

एसोचैम की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारतीय डिब्बाबंद ऑर्गेनिक उत्पादों का बाजार एक अरब डॉलर का भी आंकड़ा पार कर सकता है। इसके सालाना 17 फीसदी की दर से बढ़ने की संभावना है। उपभोक्ता भी, जहां मार्केटिंग के दौरान ‘ताजा’ एवं ‘प्राकृतिक’ शब्दों के अतिशय इस्तेमाल को लेकर अब नाखुशी जताते हैं, ‘ऑर्गेनिक’ उन्हें आकर्षित कर रहा है।

एक सर्वे में 68.4 फीसदी नमूनों में मिलावटी दूध पाया गया था। दूध की इसी मिलावट से परेशान होकर कुछ लोग ऑर्गेनिक दूध खरीदने लगे। हालांकि इसके लिए उन्हें सामान्य दूध की तुलना में करीब दोगुनी कीमत चुकानी पड़ती है। यह दूध ऑर्गेनिक खेतों में घूमते हुए चारा खाने वाली देसी गायों से निकलता है और स्वाद एवं रंगत के मामले में यह आम दूध से काफी अलग है। ये गायें रासायनिक उर्वरक और स्टेरॉयड वाले चारे से दूर रखी जाती हैं। किसी भी तरह के रसायन से मुक्त चारे की ही वजह से उन गायों का दूध ऑर्गेनिक होता है। किसान अपने खेतों में ऑर्गेनिक चारा उपजाते हैं और अपने मवेशियों को वहां चरने के लिए खुला छोड़ देते हैं। कई किसान अपने दुधारू पशुओं को ऑक्सीटोसीन या एंटीबॉयोटिक्स जैसे हॉर्मोन के इंजेक्शन भी नहीं देते हैं। इस दिशा में आज सरकारी स्तर पर व्यापक पहल की गंभीरता से जरूरत महसूस की जा रही है।

ऐसे उपभोक्ताओं का एक बड़ा वर्ग नई जानकारियों से लैस है, स्वास्थ्य को लेकर सजग है और पर्यावरण को सहेजने में मदद करने वाले उत्पादों को खरीदने में खुशी महसूस करता है लेकिन ऑर्गेनिक खरीदारों में अधिकांशत: वे लोग हैं, जो हरेक ‘केमिकल’ उत्पाद को बिना जांचे-परखे खारिज करने के आदती हैं। जहां दोनों तरह के लोग रसायन-मुक्त उत्पादों के नाम पर अधिक राशि खर्च करने के लिए तैयार हैं, वहीं वे उन उत्पादों की गुणवत्ता को लेकर सशंकित भी रहते हैं। ऑर्गेनिक उत्पादों के मूल्यों में ब्रांडों के आधार पर काफी फर्क है और असली ऑर्गेनिक उत्पादों की पहचान के लिए जारी अलग-अलग ‘लोगो’ असमंजस बढ़ाने का काम करते हैं। सरकार ने हाल में इस संदेह को दूर करने की कोशिश की है। खाद्य क्षेत्र के नियामक भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने प्राकृतिक एवं ऑर्गेनिक उत्पादों के लिए साझा लोगो ‘जैविक भारत’ जारी किया है। ऑर्गेनिक खेती के लिए दिशानिर्देश तय करने वाली नोडल एजेंसी राष्ट्रीय ऑर्गेनिक उत्पादन कार्यक्रम (एनपीओपी) ने भी पिछले साल दिसंबर में एक अधिसूचना जारी की थी जिसमें सभी ऑर्गेनिक उत्पादकों और विक्रेताओं को 1 जुलाई 2018 तक ऑर्गेनिक प्रमाणन हासिल करना अनिवार्य कर दिया गया था। हालांकि सीधे बाजार में अपने उत्पाद बेचने वाले छोटे किसानों को इस शर्त से छूट दी गई थी। किसानों और समर्थक संगठनों ने इस कदम का पुरजोर विरोध किया था।

एक सच्चाई यह भी गंभीर बहसों में है कि किसानों को परंपरागत खेती से ऑर्गेनिक खेती की तरफ प्रोत्साहित करने के लिए ढांचागत एवं प्रक्रियागत उपाय नहीं किए गए हैं। सरकार ने अनिवार्य प्रमाणन के लिए जारी एक अधिसूचना में कहा था कि अगर आप आज आवेदन करते हैं तो 2-3 साल बाद ही आपको एक ऑर्गेनिक उत्पादक किसान के तौर पर प्रमाणित किया जाएगा। प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए केवल छह महीने का वक्त ही देना पूरी तरह अनुचित है। वैसे जो किसान पारंपरिक खेती से ऑर्गेनिक खेती की तरफ रुख करना चाहते हैं, उनके लिए दो रास्ते हैं। एक रास्ता सहभागी गारंटी प्रणाली है, जिसमें कम-से-कम चार किसान मिलकर ऑर्गेनिक प्रमाण हासिल करने के लिए आवेदन कर सकते हैं। कई इलाकों के किसानों ने समूह के तौर पर प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए आवेदन किया लेकिन कभी भी उस पर कार्रवाई नहीं हुई। दूसरा तरीका सरकारी मान्यता वाली 28 तृतीय पक्ष एजेंसियां (टीपीए) हैं जिनमें से इकोसर्ट और कंट्रोल यूनियन जैसी कई एजेंसियां प्रमाणपत्र देने के पहले वैश्विक मानकों का पालन करती हैं। ऑर्गेनिक प्रमाणन हासिल करने में 10,000 से लेकर 70,000 रुपये के बीच खर्च पड़ता है। इसके अलावा हरेक साल उसके नवीनीकरण पर भी अलग से खर्च करना होता है।

इस सबके साथ ही, ऑर्गेनिक खेती की बुनियादी हकीकतों पर नजर डालें तो जहां रासायनिक उर्वरकों पर सब्सिडी मिलने का सिलसिला जारी है, वहीं सरकार किसानों को ऑर्गेनिक तरीकों से खेती के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं देती है। ऑर्गेनिक प्रमाणपत्र हासिल करने की प्रक्रिया की प्रामाणिकता को लेकर संदेह का भाव होने से मामला और गड़बड़ हो जाता है। जब प्रमाणपत्र देने का काम करने वाली एजेंसियां किसी किसान के खेती संबंधी तौर-तरीकों की पड़ताल के लिए पहुंचती हैं तो वे प्राय: साफ नजर आने वाले संकेत ही देखना चाहती हैं।

ऑर्गेनिक किसान के प्रमाणन के लिए पहुंचने वाली एजेंसियों के लोग अक्सर आसपास बिखरी खाद की बोरियों पर निर्भर रहते हैं। हालत यह है कि अगर दो सौ किसानों ने प्रमाणपत्र के लिए आवेदन किया हुआ है तो उनमें से केवल दस-बीस लोगों के खेतों की ही मिट्टी का परीक्षण किया जाता है। मृदा परीक्षण वाले खेतों का चयन भी सुविधा के आधार पर किया जाता है। प्रमाणित ऑर्गेनिक किसानों से उनकी फसल खरीदी जा सकती है लेकिन खुदरा विक्रेताओं के लिए भी टीपीए प्रमाणन लेना जरूरी रहता है। आज भी किसानों की तुलना में खुदरा विक्रेताओं के लिए ऑर्गेनिक प्रमाणन हासिल करना अधिक आसान है। भारत के किसानों का बहुत बड़ा तबका आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है और कई बार तो उनकी आय नकारात्मक ही होती है। ऐसे में सबसे अच्छा तो यही होगा कि ऑर्गेनिक किसानों के बजाय खुदरा विक्रेता ही इस प्रमाणन की लागत भरें।

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