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जल – आज और कल

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सनातन परंपराओं में प्रकृति संरक्षण के सूत्र मौजूद हैं। हमारे यहां प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है, तो नदी को मां स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं। प्राचीन समय से ही भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी जानकारी थी। वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई मौकों पर गंभीर भूल कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए। ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है।
हमारे महर्षि यह बात भली प्रकार जानते थे कि पेड़ों में भी चेतना होती है. इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य माना गया है. ऋग्वेद से लेकर बृहदारण्यकोपनिषद्, पद्मपुराण और मनुस्मृति सहित अन्य वाङ्मयों में इसके संदर्भ मिलते हैं. छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भांति सुख-दुःख की अनुभूति करते हैं. हिंदू दर्शन में एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है-

दशकूप समावापीः दशवापी समोहृदः।
दशहृद समरूपुत्रो दशपत्र समोद्रुमः।।

प्राचीन में भारत में जल संरक्षण

अथर्ववेद में यह उल्लेख है कि अश्विनी के देवदूतों ने इस दुनिया के सृजन के समय जलीय, स्थलीय, वायवीय और दूसरे अनेक प्रकार के जीवों का निर्माण किया. उन सभी जीवों को पृथ्वी पर उपलब्ध पानी से जुड़ी संतुष्टि व वरदान प्रदान करें.’ नदियां पुराने समय से पानी की स्रोत रही हैं और मानव सभ्यता का विकास इनके आगोश में हुआ है.

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेટस्मिन सन्निधिं कुरु।।

भारतीय परिपे्रक्ष्य में इस प्रेरक श्लोक में भारत की नदियों और पानी के महत्त्व को उकेरा गया है. इसमें कहा गया है कि गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु ये सब भारत की नदियां तभी तक पवित्र और जीवनदायिनी हैं, जब तक इनमें पानी मौजूद है. पृथ्वी पर वायुमंडल (ऑक्सीजन), सूर्य का प्रकाश और पानी वरदान स्वरूप ही तो हैं, जिनकी उपस्थिति से ब्रह्मांड के इस ग्रह पर जीवन का प्रादुर्भाव हो पाया.

जलस्रोतों का भी हिंदू धर्म में बहुत महत्व है. अधिकतर गांव-नगर नदी के किनारे पर बसे हैं. तमाम मानव सभ्यताएं नदी किनारे विकसित हुईं. ऐसे गांव जो नदी किनारे नहीं हैं, वहां ग्रामीणों ने तालाब बनाए थे. बिना नदी या ताल के गांव-नगर के अस्तित्व की कल्पना नहीं है। जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए हमारे ऋषियों ने इन्हें सम्मान दिया. पूर्वजों ने कल-कल प्रवाहमान सरिता गंगा को ही नहीं, वरन सभी जीवनदायनी नदियों को मां कहा है. हिन्दू धर्म में अनेक अवसर पर नदियों, तालाबों और सागरों की मां के रूप में उपासना की जाती है.

रामायण, महाभारत, पुराण, वृहत संहिता जैसे प्राचीन भारतीय साहित्य में जलचक्र की प्रक्रियाओं और परम्परागत जल संचय के तरीकों के बारे में उल्लेख मिलता है. महान कवि रहीम ने ‘बिन पानी सब सून’ जैसी अनमोल पंक्ति रचकर पूरी दुनिया को पानी की महत्व का संदेश दिया है.

वैसे तो हमारी पृथ्वी पर करीब 70 प्रतिशत पानी है, मगर यह अनोखी बात है कि इतनी बड़ी जल राशि का 1 प्रतिशत से भी कम हिस्सा मानव उपयोग के लिए उपलब्ध होता है.
सीधे तौर पर समुद्र के पानी का इस्तेमाल हम पीने के लिए नहीं कर सकते. दरअसल पानी का एक प्राकृतिक चक्र होता है. बारिश का पानी जलाशयों से होता हुआ भूमि के अंदर पहुंचता है. हम अपने दैनिक जीवन में पानी से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने के लिए भूजल पर निर्भर होते हैं. दुर्भाग्य से पिछले 20 वर्षों में हमने इस भूजल का इस कदर दोहन किया है कि आज देश के लगभग हर हिस्से में भूजल का स्तर बहुत नीचे लुढ़क गया है.

Jal aaj aur kal

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