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मां सीता के बिना रामायण पूरी नहीं होती, महिला सशक्तीकरण की हैं मिसाल: तरुण शर्मा

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रामायण, भारतीय संस्कृति और मर्यादा का प्रतीक ग्रंथ है, जिसमें भगवान श्रीराम की जीवन यात्रा को दर्शाया गया है, परंतु इस गाथा की आत्मा मां सीता हैं। उनके बिना न केवल यह कथा अधूरी रह जाती है, बल्कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की छवि भी अधूरी प्रतीत होती है।

मां सीता को अक्सर एक त्यागमयी और पतिव्रता स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया गया है, लेकिन उनका व्यक्तित्व इससे कहीं अधिक व्यापक और शक्तिशाली है। वे कठिन परिस्थितियों में भी धर्म और आत्मसम्मान पर अडिग रहीं। लंका में रावण के अत्याचारों के बीच उन्होंने साहस और धैर्य की मिसाल पेश की, तो वहीं अग्निपरीक्षा के बाद भी उन्होंने स्वयं की गरिमा बनाए रखी और अंततः जब उन्हें बार-बार संदेह की दृष्टि से देखा गया, तब उन्होंने धरती माता की गोद में जाने का निर्णय लेकर स्त्री स्वाभिमान की अनोखी परिभाषा गढ़ दी।

माता सीता का सम्पूर्ण जीवन एक ऐसी पाठशाला है, जहाँ संघर्ष, धैर्य और आत्मबल के अमिट अध्याय लिखे गए हैं। जनकपुरी के राजसी वैभव में पली-बढ़ीं सीता ने स्वयंवर में साहसपूर्वक निर्णय लेकर श्रीराम को जीवनसाथी चुना। विवाह के बाद जब वनवास का समय आया, तो बिना किसी संकोच के उन्होंने राजमहल की सुख-सुविधाओं को त्याग कर श्रीराम के साथ वनगमन का वरण किया। रावण की लंका में कैद के दौरान भी उन्होंने अपनी मर्यादा, आत्मसम्मान और धैर्य को कभी डगमगाने नहीं दिया।

सीता ने यह सिखाया कि सहनशीलता कोई कमजोरी नहीं, बल्कि नारी की सबसे बड़ी शक्ति है। विपरीत परिस्थितियों में अडिग रहकर उन्होंने धर्म के मार्ग पर चलते हुए श्रीराम की विजय का मार्ग प्रशस्त किया। उनका जीवन आज भी हर नारी के लिए प्रेरणास्रोत है — यह संदेश देता हुआ कि कोई भी कठिनाई आत्मबल, धैर्य और संकल्प के आगे टिक नहीं सकती।

आज की मिथिला की स्त्रियाँ सीता की उसी शक्ति को अपने भीतर जीवित अनुभव करती हैं। शिक्षा, समाज सेवा, कला, प्रशासन — हर क्षेत्र में मिथिला की महिलाएँ अपने सामर्थ्य का परचम लहरा रही हैं। प्रसिद्ध मधुबनी चित्रकला, जो आज अंतरराष्ट्रीय पहचान बन चुकी है, सीता-राम की गाथाओं से ही प्रेरणा लेती है। लोकगायिकाएँ आज भी जनकदुलारी की कथाओं को गीतों में संजोए हुए हैं। शिक्षा और प्रशासन में मिथिला की बेटियाँ डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, अधिकारी बनकर समाज को दिशा दे रही हैं।

वर्तमान समय में जब नारी अधिकारों और आत्मसम्मान की आवाज बुलंद हो रही है, तब सीता जी का आदर्श हमें यह दिशा देता है कि नारी केवल कोमलता और करुणा की प्रतिमूर्ति नहीं, बल्कि संकल्प, आत्मगौरव और धर्म की रक्षा की शक्ति भी है। संवाद और सहमति के माध्यम से समाधान की परंपरा भारतवर्ष की सांस्कृतिक धरोहर रही है। इस धरोहर का आरंभ स्थल माना जाता है — मिथिला की पावन भूमि। विद्वानों की यह ऐतिहासिक भूमि न केवल तर्क और ज्ञान का केंद्र रही है, बल्कि यहां से ही संवाद से समाधान की संस्कृति ने जन्म लिया। 9 मार्च, 2025 को गुजरात के गांधीनगर में ‘शाश्वत मिथिला महोत्सव-2025’ को संबोधित किया करते हुए केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री श्री अमित शाह ने इसे विस्तार से बताया।केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी कहते हैं कि हमारा भारत लोकतंत्र की जननी है। उन्होंने कहा कि भारत में लोकतंत्र की शुरुआत ही विदेह और मिथिला ने कराई थी। श्री शाह ने कहा कि महात्मा बुद्ध ने अनेक बार कहा कि जब तक विदेह के लोग आपस में मिलकर रहेंगे, तब तक कोई उसे हरा नहीं सकता। मिथिला ने लोकतंत्र के रूप में एक मजबूत ताकत खड़ी की, जो सालों तक पूरे देश और दुनिया को संदेश देती रही है।श्री अमित शाह ने इस अवसर पर भारतीय सभ्यता में महिलाओं की भूमिका पर भी विशेष जोर देते हुए मां सीता को मिथिला की गौरवशाली परंपरा का प्रतीक बताया। उन्होंने कहा कि मिथिला की संस्कृति में मातृत्व, मर्यादा और ममता का सुंदर समन्वय है, जिसे हमें आज की पीढ़ी तक पहुंचाना होगा। श्री शाह ने अपने संबोधन में मिथिलांचल को मां सीता की जन्मभूमि और राजर्षि जनक जैसे तत्वज्ञानी राजा की कर्मभूमि बताते हुए इस क्षेत्र के अद्वितीय बौद्धिक योगदान को रेखांकित किया। यह वही भूमि है जहां अष्टावक्र मुनि ने अष्टावक्र गीता जैसे अद्वितीय आध्यात्मिक ग्रंथ की रचना की, जो आज भी आत्मज्ञान और अद्वैत वेदांत के क्षेत्र में मार्गदर्शक है।
याज्ञवल्क्य, ऋषि गौतम और मंडन मिश्र जैसे महान दार्शनिकों की परंपरा इस धरती पर फली-फूली। इन मनीषियों ने संवाद, तर्क और शास्त्रार्थ के माध्यम से भारतीय दर्शन को नई ऊँचाइयों तक पहुंचाया। शास्त्रार्थ की वह संस्कृति आज के लोकतांत्रिक विमर्शों की आधारशिला कही जा सकती है।

आज की मिथिला की स्त्री यह भलीभाँति जानती है कि उसकी गरिमा शिक्षा, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास में निहित है। सीता का रूप — त्यागमयी गृहिणी से लेकर संकट में अडिग योद्धा तक — हर स्त्री को भीतर से सशक्त बनाता है।

सीता नवमी का पर्व न केवल मिथिला में, बल्कि नेपाल और उत्तर भारत में भी हर्षोल्लास से मनाया जाता है। जनकपुर, दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी जैसे नगरों में लोग सीता-राम के विवाहोत्सव को सजीव करते हैं और नारी गरिमा का सामूहिक अभिनंदन करते हैं। यह पर्व हमारी सांस्कृतिक एकता, सामाजिक समरसता और मातृशक्ति के सम्मान का प्रतीक बन चुका है।

माता सीता केवल मिथिला की ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता की प्रेरणा हैं — आत्मबल, गरिमा और सहनशीलता की जीवंत मिसाल। सीता नवमी के इस पावन अवसर पर आइए हम संकल्प लें कि हम अपनी बेटियों को शिक्षा, आत्मनिर्भरता और आत्मगौरव से युक्त करेंगे। मिथिला की स्त्रियों में जो सृजनशक्ति, धैर्य और संस्कृति की जड़ें हैं, वे एक नये युग के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभा सकती हैं।

सीता केवल एक पौराणिक पात्र नहीं, बल्कि भारतीय समाज में महिला सशक्तीकरण की प्रतीक हैं। उन्होंने यह दिखाया कि नारी सिर्फ सहनशीलता की प्रतिमूर्ति नहीं, बल्कि न्याय, आत्मबल और आत्मसम्मान की सशक्त प्रतिनिधि भी हो सकती है। आज जब देश में महिलाओं के अधिकारों और सम्मान को लेकर जागरूकता बढ़ रही है, तो मां सीता का आदर्श और भी प्रासंगिक हो जाता है।

सीता के चरित्र को केवल त्याग तक सीमित करना उचित नहीं है। उनके संघर्ष, निर्णय और गरिमामयी आचरण आज की पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि “मां सीता के बिना रामायण पूरी नहीं होती,” और वे नारी शक्ति का अद्वितीय उदाहरण हैं।

तरुण शर्मा (लेखक भारतीय समाज और संस्कृति के तत्वदर्शी हैं।)

 

 

तरुण शर्मा (लेखक भारतीय समाज और संस्कृति के तत्वदर्शी हैं।)

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