21वीं सदी को युवाओं की सदी कहा जाता है। क्या आपने कभी इस पर विचार किया है कि युवाओं का हाल क्या है ? दिखने में स्मार्ट, चलने के लिए अपनी कार, जेब में कई बैंकों का के्रेडिट कार्ड। लेकिन वास्तविकता क्या है ? इस चमक दमक के पीछे वास्तविक स्थिति क्या है ? असल में, आज के युवाओं का बस एक ही शगल है। अधिक से अधिक कमाई और बेतहाशा खर्च।
आज का युवा तेज है, चतुर है, होशियार है और टेक्नोलॉजी को अपनी जेब में रखकर वह अपने करियर को आगे बढ़ाने के लिए तमाम तरह के प्रयत्न करता रहता है। यह अच्छी बात भी है। पुणे के वित्तीय योजनाकार सम्भव जोशी का मानना है कि जब भी कोई व्यक्ति कमाना शुरू करता है, उसी दौर में वह सबसे अधिक बचत कर सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि तब उसके पास जिम्मेदारियां कम होती हैं। मगर विनय सारंगी जैसे युवाओं का मानना है कि यही वह समय है जबकि जिंदगी को अपनी शर्तों पर ऐशो आराम के साथ जिया जा सकता है। इसी साल जून में बेंगलुरु की एक आईटी कंपनी में नौकरी की शुरुआत करने जा रहे 23 वर्षीय इंजीनियरिंग के इस छात्र का कहना है, एक मकान में किसी और के साथ मिलकर नहीं रहना चाहता हूं भले ही इसके लिए मुझे अपनी तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा क्यों न खर्च करना पड़े। मुझे आने जाने में दिक्कत होगी, तो जल्द ही कार भी खरीदने का प्लान बना लिया है।
असल में, ये है आज के युवाओं की सोच है। आपने कभी सोचा है कि आज के युवाओं को कार खरीदने की कितनी जल्दी होती है ? तीस साल की आयु पार हुई नहीं कि उन्हें अपना एक अलग से घर चाहिए। कुछ दशक पहले तक सोच यह थी कि जब लोग 50 की आयु पार करते थे, उसके बाद मकान आदि खरीदते थे। शुरुआती नौकरी का जीवन तो विवाह, बच्चों के लालन-पालन में ही बीत जाता था। लेकिन, आज का युवा सबकुछ जल्दी करना चाहता है। पैसा नहीं है, तो लोन ले लो। ईएमआई तो चुका ही देंगे। तभी तो क्रेडिट कार्ड का इतना जोर है। जब जेब से पैसे तुरंत नहीं देने पडते हैं, तो खर्च करने की आदत भी अधिक हो जाती है।
तभी तो पैसे कमाने के लिए जीतोड़ भागमभाग को देखते हुए कहा गया है कि पैसा सब कुछ तो नहीं, लेकिन बहुत कुछ जरूर है और पैसा खुदा तो नहीं, लेकिन कसम खुदा की, कि खुदा से कम भी नहीं। आज के समय में पैसों पर यह बानगी बिल्कुल फिट बैठती है। सिर्फ पैसा आ जाना ही काफी नहीं है। पैसे को संभालकर रखना व उसका सदुपयोग करना बहुत जरूरी है। अचार्य चाणक्य ने कहा है कि अगर कुबेर भी अपने आय से ज्यादा खर्च करेगा तो कंगाल हो जाएगा।
कई लोग अक्सर यह शिकायत करते हैं कि उनके पास पर्याप्त पैसा नहीं है। कुछ लोग खुद के धनी नहीं होने का रोना रोते हैं। जब हम अपने आसपास पैसे के मामले में खुद से मजबूत लोगों को देखते हैं तो हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है क्या हम जो पैसा कमाते हैं वह पर्याप्त है? क्या हम इसकी जांच कर सकते हैं? इसका जवाब हां है।
पहला, क्या आप नियमित तौर पर कम समय के लिए कर्ज लेते रहते हैं? क्या आप क्रेडिट कार्ड पर बकाया रकम को लेकर परेशान रहते हैं। लेकिन, इससे बच नहीं सकते? क्या आप दोस्तों और रिश्तेदारों से उधार लेते रहते हैं? अगर ऐसा है तो यह आपकी आमदनी आपके खर्च से कम होने का संकेत है। दूसरा, क्या बिलों और ईएमआई को चुकाने को लेकर आपको तनाव होता है? क्या आप अपने बिलों के लिए ऑटो-पे सेट करने से हिचकते हैं क्योंकि आपको यह पता नहीं होता कि अकाउंट में पर्याप्त फंड है या नहीं? क्या आपको अपने इंश्योरेंस प्रीमियम और सिप का भुगतान करने में मुश्किल होती है? अगर ऐसा है तो आपकी वित्तीय स्थिति अच्छी नहीं है।
क्यों करते हैं पैसे की कद्र
असल में पैसे की कद्र करने के पीछे हमारी जरूरतें होती हैं। पैसे का बड़प्पन इस बात से बढ़ता है कि हमारी जरूरत कितनी बड़ी है। अगर हमारे पास खाने के लिए भी कुछ नहीं है तो उस वक्त पैसा हमारे लिए सबसे बड़ी चीज हो सकता है। इसके बाद अगर हमारे पास पहनने के लिए कुछ नहीं है तो पैसा थोड़ा घटे कद के साथ हमारे सामने आकर खड़ा होता है। हमारी जरूरतों की प्राथमिकता जिस हिसाब से बदलती जाती है, पैसे का कद भी उस हिसाब से घटता जाता है।
हैसियत आंकने का मानक
आज के परिपेक्ष्य में पैसा न सिर्फ वस्तुओं की कीमत आंकने का जरिया है, बल्कि पैसे से अब इंसान की कीमत भी तय होती है। यह बात थोड़ी अजीब लग सकती है लेकिन कुछ अलग मायनों में सच है। इंसान की कीमत उसके काम से तय होती है। काम करने के लिए उसे पैसे मिलते हैं। कोई व्यक्ति जितना कमा रहा है और वक्त के साथ उसके कमाए पैसों में जितनी बढ़ोतरी हो रही है, यही उस आदमी की बढ़ती कीमत और बढ़ते महत्व का इकलौता मानक होती है।
बेमोल को भी प्रभावित
पैसे के बारे में एक आम राय है कि हर चीज पैसे से नहीं खरीदी जा सकती। जो चीजें पैसे से नहीं खरीदी जा सकतीं उन्हें भी पैसा कहीं न कहीं प्रभावित करता ही है, जैसे उदाहरण के लिए मां का प्यार पैसे से नहीं खरीदा जा सकता लेकिन, मां भी अपने बेरोजगार बेटे को दुआओं के साथ लानत-मलानत देती रहती है। बेशक, ऐसा वह बच्चे के भले लिए करती है लेकिन यह भला भी पैसे कमाने से ही शुरू होता है।
तरुण शर्मा (लेखक हिन्दी भाषा अभियानी हैं।)
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