नई दिल्ली । भारतीय परंपरा हो या साहित्य, सबमें चांद की अपनी एक विशेष जगह है। हाल ही में भारत ने चांद पर अपना सफल मिशन पूरा किया है । भारत की यह वैज्ञानिक जीत भारत को उन अग्रणी देशों की पंक्तियों में ला कर खड़ा कर दिया है जो कल को भारत पर तंज कसा करते थे कि भारत एक सांप और सपेरों का देश भर है।
भारत ने अपने चंद्रयान-3 मिशन को उस जगह पहुंचाया है जहां आज तक किसी देश ने अपने अभियान को पूरा करने की हिम्मत नहीं की है। भारत का चंद्रयान मिशन अपने साथ विक्रम लैंडर को भी ले गया है। जो कि चंद्रमा पर पूरे 14 दिनों तक अपनी मौजूदगी दर्ज करेगा और चांद के रहस्य को उजागर करेगा ।
चांद के भौतिक तथा भौगोलिक स्थिति आज भले ही लोगों के लिए कौतूहल का विषय हो। लेकिन क्या आप जानते है कि हमारे देश की परंपराओं में चांद का क्या स्थान है । भारतीय परंपरा में चांद हमेशा से मानवीय भावनाओं का उदगार स्तंभ रहा है । चांद की सोलह कलाओं की व्याख्या ना जाने कितने सदियों से भारतीय साहित्य और संस्कृति का हिस्सा रहीं है ।
तो आईये जानते हैं चांद की सोलह कलाओं के बारें मे…..
अमृत, मनदा (विचार), पुष्प (सौंदर्य), पुष्टि (स्वस्थता), तुष्टि( इच्छापूर्ति), ध्रुति (विद्या), शाशनी (तेज), चंद्रिका (शांति), कांति (कीर्ति), ज्योत्सना (प्रकाश), श्री (धन), प्रीति (प्रेम), अंगदा (स्थायित्व), पूर्ण (पूर्णता अर्थात कर्मशीलता) और पूर्णामृत (सुख)। ये सभी चंद्रमा के सोलह कलाओं के नाम है। वैसे तो चांद की इन सोलह कलाओं को आत्मा की पूर्णता की ओर गति माना जाता रहा है । वास्तव में आत्मा हो या चांद हर किसी को अपनी गति को पूरा करना होता है। चांद की अवस्था की बात करें तो अमावस्या जहां अज्ञान का प्रतीक है तो वहीं पूर्णिमा ज्ञान की पूर्णता को इंगित करता है । ये कलाएं योगियों की अनेकों अवस्थाओं की स्थिति को भी दर्शाता है। योगी अपने योग साधना के द्वारा समय के साथ साथ इन अवस्थाओं को पाते हैं। साधना के द्वारा योगी अपने अवस्था को प्राप्त करता है वैसे ही जैसे चांद ।
कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण की भी 16 कलाएं थी और भगवान राम की 12 । ऐसी मान्यता है कि भगवान राम का जुड़ाव सूर्य वंश से है और भगवान कृष्ण का जुड़ाव चंद्र वंश से । जिसके कारण भगवान कृष्ण और चांद की सोलह कलाओं में समानता है । भारत के अन्य ग्रंथों में चंद्रमा की इन सोलह कलाओं के अन्य नाम भी देखे गये है जैसे- अनामया, प्राणम्य, मनोमाया, विज्ञानमय, आनंदमय, अतीशिनी, विपरिनाभिमि, संक्रामिनी, प्रभावी, कुंथिनी, विकाशिनी, मायादिनी, संहलादिनी, अहलादिनी, पूर्ण व निर्मित
मान्यता यह भी है कि इन सोलह कलाओं में पंद्रह कला शुक्ल पक्ष तथा सोलहवां कला उत्तरायण काल में अपना प्रभाव दिखाती हैं। जब आत्माएं अपनी शुद्धि को प्राप्त करने लगतीं हैं और बुद्धि अपनी प्रखरता को प्राप्त करने लगता है । मन में व्याप्त वृत्तियों का नाश होने लगता है । साथ ही साथ जहां अहंकार का नाश होने लगता है तो वहीं जीव को अपने स्वभाव का वास्तविक बोध हो कर अनेक जन्मों की स्मृतियां उनकें अंदर जगने लगतीं हैं । मुंह से निकली हर बात अपनी सत्यता की कसौटी को पूरा करता है तो वहीं अग्नि तथा जल तत्व पूर्ण नियंत्रण को पा लेता है । सारा शरीर सुंगधी की छटा से लबालोब हो जाता है। और इन पंद्रह कलाओं की पूर्णता को पाने के बाद जब आत्मा सोलहवें कला के की ओर बढ़ता है तो वह अपनी इच्छा से देवत्व रूप में जन्म लेता है ।
भारतीय साहित्य तथा संस्कृति में चांद की इन सोलहों कलाओं की अपनी खा़सियत रही है। कहते हैं ना कि जब आप अपने व्यक्तित्व की पराकाष्ठा को पाते हो तो आप सोलह कलाओं से निपुण हो जाते हो । शायद भारतीय दर्शन की बात हमें जीवन के आचार विचार में उतारने की जरूरत है ।