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आचार्य रामचंद्र शुक्ल : जिनके बिना अधूरा रहता भारतीय साहित्य का इतिहास

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टीम हिन्दी

भारत के इतिहास में बहुत से प्रमुख और महान इतिहासकार और साहित्यकार थे जिनकी रचनाओं की चर्चा आज भी की जाती हैं. इन्ही में से एक रचनाकार का नाम है आचार्य रामचंद शुक्ल. वे भारत के बीसवीं सदी के जाने माने साहित्यकार, रचनाकार ,कथाकार और कवी थे- वे हिंदी वैधानिक के बहुत बड़े आलोचक थे और हिंदी पाठ की वैधानिक आलोचना उन्ही के द्वारा हुई थी. आचार्य रामचंद शुक्ल की सबसे प्रचलित साहित्य का नाम हिंदी साहित्य का इतिहास है. इनकी यह साहित्य रचना आज के समय में भी बहुत प्रचलित हैं तथा इसमें उन्होंने हिंदी साहित्य के पुरे इतिहास के बारे में निबंध और कविता के रूप में वर्णन किया हैं. इसमें उन्होंने हिंदी इतिहास के सभी प्रचलित कवि और रचनाकारो के बारे में और उन की कविता और रचनाओं का विस्तार से वर्णन किया है.

शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा, जिसमें काव्य प्रवृत्तियों एवं कवियों का परिचय भी है और उनकी समीक्षा भी लिखी है. दर्शन के क्षेत्र में भी उनकी विश्व प्रपंच पुस्तक उपलब्ध है. पुस्तक यों तो मिडल ऑफ दि युनिवर्स का अनुवाद है. पर उसकी लम्बी भूमिका शुक्ल जी के द्वारा किया गया मौलिक प्रयास है. इस प्रकार शुक्ल जी ने साहित्य में विचारों के क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य किया है. इस सम्पूर्ण लेखन में भी उनका सबसे महत्वपूर्ण एवं कालजयी रूप समीक्षक, निबन्ध लेखक एवं साहित्यिक इतिहासकार के रूप में प्रकट हुआ है.

बता दें कि रामचन्द्र शुक्ल जी का जन्म बस्ती ज़िले के अगोना नामक गाँव में सन् 1884 ई. में हुआ था. सन् 1888 ई. में वे अपने पिता के साथ राठ हमीरपुर गये तथा वहीं पर विद्याध्ययन प्रारम्भ किया. सन् 1892 ई. में उनके पिता की नियुक्ति मिर्ज़ापुर में सदर क़ानूनगो के रूप में हो गई और वे पिता के साथ मिर्ज़ापुर आ गये. रामचन्द्र शुक्ल जी के पिता ने शिक्षा के क्षेत्र में इन पर उर्दू और अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए ज़ोर दिया तथा पिता की आँख बचाकर वे हिन्दी भी पढ़ते रहे. सन् 1901 ई. में उन्होंने मिशन स्कूल से स्कूल फ़ाइनल की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा प्रयाग के कायस्थ पाठशाला इण्टर कॉलेज में एफ़.ए. (बारहवीं) पढ़ने के लिए आये. मिर्ज़ापुर के पण्डित केदारनाथ पाठक, बदरी नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ के सम्पर्क में आकर उनके अध्ययन-अध्यवसाय को और बल मिला. यहीं पर उन्होंने हिन्दी, उर्दू, संस्कृत एवं अंग्रेज़ी के साहित्य का गहन अनुशीलन प्रारम्भ कर दिया था, जिसका उपयोग वे आगे चल कर अपने लेखन में जमकर कर सके.

उनकी एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता समसामयिक काव्य चिन्तन सम्बन्धी जागरूकता है. उन्होंने जिन साहित्य-मीमांसकों एवं रचनाकारों को उद्धृत किया है, उनमें से अधिकांश को आज भी हिन्दी के तमाम आचार्य और स्वनाम धन्य आलोचक नहीं पढ़ते. सम्भवत: रामचन्द्र शुक्ल उन प्रारम्भिक व्यक्तियों में होंगे, जिन्होंने इलियट और कमिंग्ज जैसे रचनाकारों का भारतवर्ष में पहली बार उल्लेख किया है. 1935 ई. में इन्दौर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन की साहित्य परिषद् के अध्यक्ष पद से दिया गया भाषण काव्य में अभिव्यंजनवाद में इस जागरूकता के सम्बन्ध में सबसे अधिक दर्शन होते हैं. उन्होंने जे.एस. फ्लिण्ट की चर्चा की है तथा हेराल्ड मुनरो की तारीफ की है तथा कैलीफोर्निया युनीवर्सिटी के अध्यापकों द्वारा लिखित सद्यह प्रकाशित आलोचनात्मक निबन्धों के संग्रह के उद्धरण दिये हैं.

उल्लेखनीय है कि पहली बार हिन्दी में शुक्ल जी ने सामाजिक मनोवैज्ञानिक आधार पर किसी कवि की विवेचना करके आलोचना को एक व्यक्तित्व प्रदान किया, उसे जड़ से गतिशील किया. एक ओर उन्होंने सामाजिक सन्दर्भ को महत्व प्रदान किया एवं दूसरी ओर रचनाकार की व्यक्तिगत मनरूस्थिति का हवाला दिया. शुक्ल जी के व्यक्तित्व का एक गुण यह भी है कि वे श्रुति नहीं, मुनि-मार्ग के अनुयायी थे. किसी भी मत, विचार या सिद्धान्त को उन्होंने बिना अपने विवेक की कसौटी पर कसे स्वीकार नहीं किया. यदि उनकी बुद्धि को वह ठीक नहीं जँचा, तो उसके प्रत्याख्यान में तनिक भी मोह नहीं दिखाया. इसी विश्वास के कारण वे क्रोचे, रवीन्द्र, कुन्तक, ब्लेक या स्पिन्गार्न की तीखी समीक्षा कर सके थे.

कवि की अनुभूति को सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त समझने के कारण उन्होंने कविकर्म के लिए यह महत्वपूर्ण माना कि “वह प्रत्येक मानव स्थिति में अपने को ढालकर उसके अनुरूप भाव का अनुभव करे”. इस कसौटी की ही अगली परिणति है कि ऐसी भावदशाओं के लिए अधिक अवकाश होने के कारण उन्होंने महाकाव्य को खण्ड-काव्य या मुक्तक-काव्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण स्वीकार किया. कुछ इसी कारण रोमाण्टिक, रहस्यात्मक या लिरिकल संवेदना वाले काव्य को वे उतनी सहानुभूति नहीं दे सके हैं.

रामचन्द्र शुक्ल ने श्जायसी ग्रन्थावलीश् तथा श्बुद्धचरितश् की भूमिका में क्रमश: अवधी तथा ब्रजभाषा का भाषा-शास्त्रीय विवेचन करते हुए उनका स्वरूप भी स्पष्ट किया है. अनुवादक रूप में उन्होंने शशांक जैसे श्रेष्ठ उपन्यास का अनुवाद किया है. अनुवाद के रूप में उनकी शक्ति या निर्बलता यह थी कि उन्होंने अपनी प्रतिभा या अध्ययन के बल पर उनमें अपेक्षित परिवर्तन कर लिये हैं. शशांक मूल बंगला में दुखान्त है, पर उन्होंने उसे सुखान्त बना दिया है. अनुवादक की इस प्रवृत्ति को आदर्श भले ही न माना जाये, पर उसके व्यक्तित्व की शक्ति एवं जीवन का प्रतीक अवश्य माना जा सकता है.

Acharya ramcharan shulk

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