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जेएनयू से निष्कासित छात्र कैसे बना हिन्दी-संघर्ष का राष्ट्रीय प्रतीक

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डॉ. वेद प्रताप वैदिक, लेखन और पत्रकारिता का एक जाना माना चेहरा जो भारत के प्रख्यात लेखक, पत्रकार, विचारक और स्वप्नद्रष्टा रहे, डॉ. वेद प्रताप वैदिक की पहचान सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है।बल्कि लोगों के बीच हिंदी भाषा को जिंदा रखनें वाले प्रबल समर्थक होने के साथ साथ वो हिन्दी भाषा को भारत और विश्व मंच पर स्थापित करने की दिशा में सदा प्रयत्नशील भी रहे। डॉ. वेद प्रताप वैदिक भले की आज हमारे बीच ना हो लेकीन हिंदी भाषा के लिए उनका प्रेम और उनकी महान शख्सियत हमेशा हमें उनकी याद दिलाती रहेगी। हिंदी को पुरी दुनिया में लोकप्रिय बनाने के लिए जो कदम उन्होंने उठाए वो कभी भुलाए नहीं जा सकते। डॉ. वेद प्रताप वैदिक को जानने वालों का तो ये भी मानना है,की उनके द्वारा हिंदी के लिए किये गए आंदोलन के चलते ही कानून की परीक्षाओं और यूपीएससी के लिए हिंदी भाषा को मान्यता दी गई।

 

डॉ. वैदिक कैसे बनें हिन्दी-संघर्ष के राष्ट्रीय प्रतीक

डॉ. वैदिक ने अपनी पड़ाई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडी से की थी। जिसमें उन्होने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी। हिंदी से उनके प्रेम की सीमा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की वे भारत के ऐसे पहले विद्वान बनें, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर रिसर्च पेपर हिंदी में लिखा था। जिसके चलते उन्हें जेएनयू से निष्कासित कर दिया गया था। और देखते ही देखते इस मामले ने साल 1965-67 में इतना तूल पकड़ा कि संसद में इस पर जबरदस्त हंगामा हुआ। जिसमें कई लोगों ने डॉ.वैदिक का समर्थन किया। समर्थकों में शामिल थे, अटल बिहारी वाजपेयी,चन्द्रशेखर, भागवत झा आजाद आदि। जिसके बाद उस समय प्रधानमंत्री का पद संभाल रहीं इन्दिरा गांधी ने ‘स्कूल’ के संविधान में संशोधन किया और डॉ.वैदिक को वापस लिया गया।इस घटना के बाद ही उन्हें हिन्दी-संघर्ष के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में देखा जानें लगा।

किन सम्मानों से नवाजे गए डॉ. वैदिक

डॉ. वैदिक हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे। जिसके लिए उन्होने अनेकों प्रयास किए।उन्होंने अपने लेखन से लोगों को ये सिद्ध कर दिया कि स्वभाषा में किया गया काम अंग्रेजी के मुकाबले कहीं बेहतर हो सकता है। इतना ही नहीं उन्होंने एक पुस्तक अंग्रेजी में भी लिखी है।जिसमें ये समझाया गया है, की कोई भी स्वाभिमानी और विकसित राष्ट्र अंग्रेजी में नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा में सारा काम करता है। उन्होंने एक लेखक,पत्रकार, और वक्ता के रूप में दुनिया के करीब 80 देशों की यात्राएं कीं।हिंदी के लिए उठाए गए उनके कई कदम के लिए उन्हें विश्व हिंदी सम्मान (2003), महात्मा गांधी सम्मान (2008) सहित कई पुरस्कार और सम्मान से नवाजा गया।

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