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संगीत वाद्य, संगीत का वास्ततविक चित्र प्रस्तुीत करते हैं । इनका अध्यकयन संगीत के उदभव की जानकारी देने में सहायक होता है और वाद्य जिस जनसमूह से सम्बं्धित होते हैं, उसकी संस्कृ ति के कई पहलुओं का भी वर्णन करते हैं । उदाहरण के लिए गज बनाने के लिए बाल, ढोल बनाने के लिए प्रयोग की जाने वाली लकड़ी या चिकनी मिट्टी या फिर वाद्यों में प्रयुक्ति की जाने वाली जानवरों की खाल यह सभी हमें उस प्रदेश विशेष की वनस्पीति तथा पशु-वर्ग की विषय में बताते हैं । हमें संगीत-सम्बंहधी गतिविधि का प्राचीनतम प्रमाण मध्य प्रदेश के अनके भागों और भीमबेटका की गुफाओं में बने भित्तिचित्रों से प्राप्तध होता है, जहां लगभग 10,000 वर्ष पूर्व मानव निवास करता था । इसके काफी समय बाद, हड़प्पाक सभ्यहता की खुदाई से भी नृत्य0 तथा संगीत गतिविधियों के प्रमाण मिले हैं ।
दूसरी से छठी शताब्दी ईसवी सन् के संगम साहित्य में वाद्य के लिए तमिल शब्दग ‘कारूवी’ का प्रयोग मिलता है । इसका शाब्दिक अर्थ औजार है, जिसे संगीत में वाद्य के अर्थ में लिया गया है ।
बहुत प्राचीन वाद्य मनुष्यब के शरीर के विस्तािर के रूप में देखे जा सकते हैं और जहां तक कि हमें आज छड़ी ओर लोलक मिलते हैं । सूखे फल के बीजों के झुनझुने, औरांव के कनियानी ढांडा या सूखे सरस फल या कमर पर बंधी हुई सीपियों को ध्वीनि उत्पतन्नऔ करने के लिए आज भी प्रयोग में लाया जाता है ।
हाथ का हस्तमवीणा के रूप में उल्लेोख किया गया है, जहां हाथों व उंगलियों को वैदिक गान की स्व रलिपि पद्धति को प्रदशर्ति करने तथा ध्व नि का मुद्रा-हस्तजमुद्रा के साथ समन्विय करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। 200 ईसा पूर्व से 200 ईसवीं सन् के समय में भरतमुनि द्वारा संकलित नाटयशास्त्रल में संगीत वाद्यों को ध्वसनि की उत्पमत्ति के आधार पर चार मुख्या वर्गों में विभाजित किया गया है :
1. तत् वाद्य अथवा तार वाद्य – तार वाद्य
2. सुषिर वाद्य अथवा वायु वाद्य – हवा के वाद्य
3. अवनद्व वाद्य और चमड़े के वाद्य – ताल वाद्य
4. घन वाद्य या आघात वाद्य – ठोस वाद्य, जिन्हेंर समस्वंर स्तेर में करने की आवश्यदकता नहीं होती ।
स्पष्ट है कि वादन के लिए किसी वाद्य-यंत्र का होना आवश्यक है। वाद्य का क्षेत्र अत्य्न्न्त व्यापक है। संगीत जगत में कुछ एसे वाद्य भी है जिनका प्रयोग स्वतन्त्र रूप के साथ साथ, किसी अन्य वाद्य की संगति के लिये भी किया जाता है। संगीत की अन्य कलायें जैसे गायन, वादन, नृत्य के साथ साथ नाटक और धार्मिक कार्य मे भी इन वाद्यों का महत्वपूर्ण स्थान है । इन अद्धभूद वाद्यों का महत्व केवल उनका वादन मात्र ही नहीं है अपितु ये वाद्य समृद्ध सांस्कृति का भी प्रतिबिम्ब हैं। इन वाद्यों के बारे में जानकर, उनका विकास करना न सिर्फ हमारा दायित्व भी है अपितु हमारा कर्तव्य भी है। क्योंकि हमारे जीवन में वाद्यों का महत्वपूर्ण अस्तित्व है ।
कोलु या डांडिया
गुजरात तथा दक्षिणी भारत में प्रचलित इस यंत्र में लगभग तीस सेंटीमीटर के दो लकड़ी के डंडों को बजाकर ध्वनि निकाली जाती है।
विल्लु कोट्टु या ओण विल्लु
केरल का यह वाद्य नारियल के पते के डंठल को धनुष की आकृति में मोड़कर बनाया जाता है।
डहारा या लड्ढीशाह
कश्मीर घाटी में फ़कीरों के हाथ में देखे जाने वाले इस यंत्र में लगभग पौन मीटर लम्बी लोह की छड़ में धातु के अनेक छल्ले लगे होते हैं जिसे हिलाकर बजाया जाता है।
सोंगकोंग
असम की नागा जनजातियों द्वारा प्रयुक्त यह यंत्र किसी मोटी लकड़ी को भीतर से खोखला बनाकर उसके एक सिरे पर भैंस के सिर की आकृति बना दी जाती है।
टक्का
असम में प्रचलित यह एक मीटर लंबा बांस का टुकड़ा होता है जिसमें लम्बाई में कई दरार बनाये होते हैं। इसे हाथ पर पीटकर बजाया जाता है।
मुख चंग
इस यंत्र में एक गोलाकार चौखट होता है, जिसके भीतर एक जीभ होती है, जिसे मुख से पकड़कर हाथ की ऊंगलियों से झंकृत करके मधुर ध्वनि निकाली जाती है।
थाली, जागंटे या सीमू
यह थाली नुमा एक घंटा होता है, जिसे छड़ी से पीटकर बजाया जाता है। उत्तरपूर्वी क्षेत्रों में प्रचलित सीमू में मध्य में थोड़ा उभार होता है।
चिमटा
लगभग एक मीटर लम्बे लोहे के चिमटे की दोनों भुजाओं पर पीतल के छोटे-छोटे चक्के कुछ ढीलेपन के साथ लगाकर इस यंत्र का निर्माण किया जाता। इसे हिलाकर या हाथ पर मारकर बजाया जाता है।
मंझीरा
5 सेंटीमीटर से लेकर 30 सेंटीमीटर तक व्यास वाले दो समतल प्लेट या गहरी घंटी द्वारा बने इस वाद्य यंत्र के अनेक रूप हैं जैसे जाल्रा, करताल, बौर ताल(असम) आदि।
गिलबड़ा
आंध्र प्रदेश की चेंचु जनजाति द्वारा प्रयुक्त इस यंत्र का निर्माण अनेक सूखे हुए फलों जिनमें बीज होते हैं, को एक साथ बांधकर किया जाता है तथा उन्हें लय ताल में हिलाकर मधुर ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
भारतीय उपमहाद्वीप में संगीत की जो परम्परा है, वो पूरे विश्व में अनमोल है। यहां के लोग स्वभावतः संगीत प्रेमी होते हैं, लिहाजा संगीत की जड़ भाषाओँ से भी पुरानी है। वैश्वीकरण और वैदेशिक आदान-प्रदान से पहले भी भारत संगीत के मामले में समुन्नत देश रहा है और इसके अपने वाद्ययंत्र हैं, जो संगीत को शीर्ष पर ले जाते हैं।
स्पष्ट है कि वादन के लिए किसी वाद्य-यंत्र का होना आवश्यक है। वाद्य का क्षेत्र अत्य्न्न्त व्यापक है। संगीत जगत में कुछ एसे वाद्य भी है जिनका प्रयोग स्वतन्त्र रूप के साथ साथ, किसी अन्य वाद्य की संगति के लिये भी किया जाता है। संगीत की अन्य कलायें जैसे गायन, वादन, नृत्य के साथ साथ नाटक और धार्मिक कार्य मे भी इन वाद्यों का महत्वपूर्ण स्थान है । इन अद्धभूद वाद्यों का महत्व केवल उनका वादन मात्र ही नहीं है अपितु ये वाद्य समृद्ध सांस्कृति का भी प्रतिबिम्ब हैं। इन वाद्यों के बारे में जानकर, उनका विकास करना न सिर्फ हमारा दायित्व भी है अपितु हमारा कर्तव्य भी है। क्योंकि हमारे जीवन में वाद्यों का महत्वपूर्ण अस्तित्व है ।
आधुनिक काल में अब हमारे पास नए प्रयोग करने के लिए आधुनिक तकनीक की प्रयोगशालाएं है जिससे किसी भी वाद्य यंत्र की कृत्रिम ध्वनि उत्पन की जा सकती है । परन्तु जो मिठास और माधुर्य वाद्यों की मौलिक ध्वनि में है वह कृत्रिम ध्वनि में नहीं हो सकती । अतरू वाद्य भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक अभिन्न अंग है जिसके बिना शास्त्रीय संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
Bharat ka gaurav sangeet vagh yantr