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क्या है 6 करोड़ वर्ष पुरानी शालिग्राम शिला की महिमा, जिससे बनेगी सियाराम की प्रतिमा

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अयोध्या/नई दिल्ली। पूरा देश भाव-विह्वल हो रहा है। सदियों का सपना सच होने वाला हैं। अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि पर भव्य रामदरबार सजने की प्रक्रिया बेहद तेज है। नेपाल से करीब 6 करोड़ वर्ष पुरानी 2 शालिग्राम शिला अयोध्या धाम पहुंच चुकी है। इसी शिला से प्रभु श्रीराम की प्रतिमा बनेगी। जगत जननी सिया का रूप भी इसी शिला से निखरेगा। मान्यता है कि ये शिलाएं लगभग छह करोड़ साल पुरानी हैं। दोनों शिलाओं का वजन 40 टन हैं। वहीं एक शिला का वजन 26 टन जबकि दूसरी का 14 टन वजन है।

नेपाल के रास्ते जैसे जैसे यह शिला अयोध्या की ओर बढ़ती गई, हर जगह पूरा समाज भाव-विह्वल दिखा। मानो मिथिला की धिया सिया एक बार फिर अपने ससुराल की ओर विदा हो रही है। नेपाल के जनकपुर की काली गंडकी नदी से इस पत्थर को निकालने के बाद जानकी मंदिर में इन शिलाओं का विधिवत पूजन अर्चना की गई थी। इसके बाद 5 कोस की परिक्रमा पूरी करने के बाद भारत रवाना किया गया।

प्राप्त जानकारी के अनुसार, शालिग्राम पत्‍थर मौलस्‍क नामक समुद्री जीवों के बाहरी खोल के फॉसिल यानि कि जिवाश्म हैं। इनको एमोनाइट शैल कहा जाता है। दुनिया के किसी दूसरे इलाके में इनकी उपलब्धता न के बराबर है। यह नेपाल में ही उपलब्ध है। वैज्ञानिकों का मत है कि यह  पत्‍थर हिमालयी क्षेत्रों में इसलिए बड़ी मात्रा में मिलते हैं, क्योंकि हिमालय जो दुनिया का सबसे ऊंचा पर्वत है। कहा जाता है कि  हजारों साल पहले वहां पर विशाल समुद्र था। इस समुद्र में काफी मात्रा में समुद्री जीव रहते थे। वर्तमान समय से करीब 6 करोड़ साल पहले इंडियन टेक्‍टॉनिक प्‍लेट और यूरेशियन टेक्‍टॉनिक प्‍लेटों की आपस में टक्‍कर होने के बाद हिमालय की उत्‍पति हुई थी।
सनातन संस्कृति में शालिग्राम की अपार महिमा है। भगवान विष्णु पतिव्रता तुलसी यानी वृंदा से श्राप से शालग्राम शिला बन गए। वृंदा भी तुलसी के रूप में परिवर्तित हो गई। शालग्राम जी पर से केवल शयन कराते समय तुलसी हटाकर बगल में रख दी जाती है, वैसे इसके अलावा वह तुलसी से अलग नहीं होते हैं। शालिग्राम शिला भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक है। माना जाता है कि 33 तरह के शालिग्राम हैं। इन सभी को विष्णु के 24 अवतारों से माना जाता है। शालिग्राम शिला की उपासना भगवान शिव के ‘लिंगम’ रूप की पूजा के बराबर मानी जाती है।
आज शालिग्राम पत्थर विलुप्ती की कगार पर है। यह केवल अब दामोदर कुंड में मिलती है, ये कुंड गंडकी नदी से 173 किमी की दूरी पर स्थित है।

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