टीम हिन्दी
रंगोली भारत के किसी भी प्रांत की हो, वह लोक कला है, अतः इसके तत्व भी लोक से लिए गए हैं और सामान्य हैं। रंगोली का सबसे महत्वपूर्ण तत्व उत्सवधर्मिता है। इसके लिए शुभ प्रतीकों का चयन किया जाता है। रंगोली भारत की सांस्कृतिक परंपराओं में सबसे प्राचीन लोक चित्रकला है। इस चित्रकला के तीन प्रमुख रूप मिलते हैं- भूमि रेखांकन, भित्ति चित्र और कागज़ तथा वस्त्रों पर चित्रांकन। इसमें सबसे अधिक लोकप्रिय भूमि रेखांकन हैं, जिन्हें अल्पना या रंगोली के रूप में जाना जाता है। भित्ति चित्रों के लिए बिहार का मधुबनी और महाराष्ट्र के ठाणे जिले में वरली नामक स्थान प्रसिद्ध है। इनकी रचना शैली और रचनात्मक सामग्री रंगोली के समान ही होती है।
रंगोली धार्मिक, सांस्कृतिक आस्थाओं की प्रतीक रही है। इसको आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। तभी तो विभिन्न हवनों एवं यज्ञों में ‘वेदी’ का निर्माण करते समय भी माँडने बनाए जाते हैं। ग्रामीण अंचलों में घर-आँगन बुहारकर लीपने के बाद रंगोली बनाने का रिवाज आज भी विद्यमान है। भूमि-शुद्धिकरण की भावना एवं समृद्धि का आह्वान भी इसके पीछे निहित है।
अल्पना जीवन दर्शन का प्रतीक है जिसमें नश्वरता को जानते हुए भी पूरे जोश के साथ वर्तमान को सुमंगल के साथ जीने की कामना और श्रद्धा निरंतर रहती है। यह जानते हुए भी कि यह कल धुल जाएगी, जिस प्रयोजन से की जाती है, वह हो जाने की कामना ही सबसे बड़ी है। त्योहारों के अतिरिक्त घर-परिवार में अन्य कोई मांगलिक अवसरों पर या यूँ कहें कि रंगोली सजाने की कला अब सिर्फ पूजागृह तक सीमित नहीं रह गई है। स्त्रियाँ बड़े शौक एवं उत्साह से घर के हर कमरे में तथा प्रवेश द्वार पर रंगोली बनाती हैं। यह शौक स्वयं उनकी कल्पना का आधार तो है ही, नित-नवीन सृजन करने की भावना का प्रतीक भी है।
बता दें कि रंगोली का एक नाम अल्पना भी है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में भी मांडी हुई अल्पना के चिह्न मिलते हैं। अल्पना वात्स्यायन के काम-सूत्र में वर्णित चौसठ कलाओं में से एक है। यह अति प्राचीन लोक कला है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में साधारणतः यह जाना जाता है कि ‘अल्पना’ शब्द संस्कृत के – ‘ओलंपेन’ शब्द से निकला है, ओलंपेन का मतलब है – लेप करना। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि ये कलात्मक चित्र शहर व गाँवों को धन-धान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते है और अपने जादुई प्रभाव से संपत्ति को सुरक्षित रखते हैं।
इसी दृष्टिकोण से अल्पना कला का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन हुआ। बहुत से व्रत या पूजा, जिनमें कि अल्पना दी जाती है, आर्यों के युग से पूर्व की है। आनंद कुमार स्वामी, जो कि भारतीय कला के पंडित कहलाते हैं, का मत है कि बंगाल की आधुनिक लोक कला का सीधा संबंध 5000 वर्ष पूर्व की मोहन जोदड़ो की कला से है। व्रतचारी आंदोलन के जन्मदाता तथा बंगला लोक कला व संस्कृति के विद्वान गुरुसहाय दत्त के अनुसार कमल का फूल जिसे बंगाली स्त्रियाँ अपनी अल्पनाओं के मध्य बनाती हैं, वह मोहन जोदड़ो के समय के कमल के फूल का प्रतिरूप ही है। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अल्पना हमारी संस्कृति में आस्ट्रिक लोगों, जैसे मुंडा प्रजातियों से आई हैं, जो इस देश में आर्यों के आने से अनेक वर्ष पूर्व रह रहे थे। उन के अनुसार प्राचीन व परंपरागत बंगला की लोक कला कृषि युग से चली आ रही है। उस समय के लोगों ने कुछ देवी देवताओं व कुछ जादुई प्रभावों पर विश्वास कर रखा था, जिसके अभ्यास से अच्छी फसल होती थी तथा प्रेतात्माएँ भाग जाती थीं।
अल्पना के इन्हीं परंपरागत आलेखनों से प्रेरणा लेकर आचार्य अवनींद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में कला भवन में अन्य चित्रकला के विषयों के साथ-साथ इस कला को भी एक अनिवार्य विषय बनाया। आज यह कला शांति निकेतन की अल्पना के नाम से जानी जाती हैं। इस कला में गोरी देवी मजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा जो शांति निकेतन अल्पना की जननी मानी जाती हैं।
असल में, रंगोली एक अलंकरण कला है जिसका भारत के अलग अलग प्रांतों में अलग अलग नाम है। उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, बिहार में अरिपन, बंगाल में अल्पना, महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली, तमिलनाडु में कोल्लम, उत्तरांचल में ऐपण, आंध्र प्रदेश में मुग्गु या मुग्गुलु, हिमाचल प्रदेश में ‘अदूपना’, कुमाऊँ में लिखथाप या थापा, तो केरल में कोलम। इन सभी रंगोलियों में अनेक विभिन्नताएँ भी हैं। महाराष्ट्र में लोग अपने घरों के दरवाजे पर सुबह के समय रंगोली इसलिए बनाते हैं, ताकि घर में कोई बुरी ताकत प्रवेश न कर सके। भारत के दक्षिण किनारे पर बसे केरल में ओणम के अवसर पर रंगोली सजाने के लिए फूलों का इस्तेमाल किया जाता है। दक्षिण भारतीय प्रांत- तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक के ‘कोलम’ में कुछ अंतर तो होता है परंतु इनकी मूल बातें यथावत होती हैं। मूल्यतः ये ज्यामितीय और सममितीय आकारों में सजाई जाती हैं। इसके लिए चावल के आटे या घोल का इस्तेमाल किया जाता है। चावल के आटे के इस्तेमाल के पीछे इसका सफेद रंग होना व आसानी से उपलब्धता है।
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