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स्त्री का अस्तित्व

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रूपा तीन विद्यालयों की संचालिका है। इतनी कर्मठ महिला अपने आप सम्मान की पात्रा हो जाती है। कितने को ही रोजगार देने में सक्षम ।

एक समय ऐसा भी था जब वह अपनी जिंदगी से निराश हो चुकी थी। जीवन का चक्र तो अनवरत चलता है जिसमें दिवस के उजाले के साथ रात्रि की कालिमा का भी आवागमन होता है।

मैं जिस रूपा को जानती थी महाविद्यालय के दिनों में वो अपने आप में ही सिमटी रहती थी,और मैं भी अंतर्मुखी ,स्वाभाविक था दोनों इक दूजे के ज्यादा करीब नहीं थे। पर अरसे बाद जब रेल में यात्रा के दौरान हम दोनों आमने सामने की सीट पर मिले तो हर्षातिरेक से भर आलिंगनबद्ध हो गए।

दोनों का ही व्यक्तित्व परिवर्तित _ मैं उम्र के इस पड़ाव पर अंतर्मुखी से बहिर्मुखी और रूपा भी व्यावसायिक महिला के अनुसार मिलनसार ।

थोड़ी देर इक दूजे की पारिवारिक जानकारी ली हम दोनों ने, पर मैंने महसूस किया अतीत की घटनाओं का जिक्र करते ही रूपा असहज हो जाती।

रात के खाने के बाद मैंने रूपा के अंतर्मन में छिपे रहस्य को टटोलना चाहा । अपनापन का आगोश मिलते ही रूपा अपनी बीती यादों के परत खोलने लगी।

शहर के प्रतिष्ठित व्यावसायिक परिवार की इकलौती बड़ी बेटी जिसने जब जो चाहा आराम से मिल गया।माता-पिता ने बेटी की परवरिश परिवार के बडे़ संतान की तरह की । शनैः शनैः घर और व्यापार के हर अहम फैसले में बेटी के सुझाव को भी महत्व दिया जाने लगा । खुले विचारों से परिपूर्ण पारिवारिक वातावरण में जी रही बालिका आत्मविश्वासी संग स्त्री स्वतंत्र विचारधारा से परिपूर्ण व्यक्तित्व की स्वामिनी हो गई।

उस समय के सामाजिक मान्यताओं से बंधे पिताजी ने पुत्री की सहमति से स्नातकोत्तर के बाद प्रतिष्ठित परिवार में रिश्ता तय कर दिया। लड़का दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त एक प्रतिष्ठित महाविद्यालय का प्राध्यापक। आधुनिक विचारधारा के परिवार में मंगनी के बाद लड़की- लड़का के आपस में मिलने पर रोक नहीं था , भावी पति के संग दो बार मिलना भी हो गया। तो ख्वाबों में सुनहरे भविष्य के सपने भी पिरोने लगी। प्यार के कोपल दोनों ही तरफ से प्रस्फुटित होने लगे।

उस दिन लड़का की माँ मिलने आई थीं होने वाली बहू से , आवभगत में लगा था पूरा परिवार। शाम में पिताजी कार्यालय से आकर कोई समस्या बता रहे थे तो रूपा भी उसमें अपने विचार खुलकर रख रही थी। होने वाली सास लड़की मे इतनी बौद्धिकता देख हतप्रभ थी। अपने घर पहुँच कर उन्होंने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया। उसका पूरा परिवार समझ नहीं पा रहा था आखिर ऐसा क्या हुआ। जब जाकर पिताजी ने रिश्ता तोड़ने का कारण जानना चाहा तब पता चला उस तथाकथित शिक्षित परिवार को बहू के रूप में एक मोम की गुड़िया चाहिए जो अंगूठा की जगह हस्ताक्षर करना तो जानती हो पर उस कागजात को पढ़ने की गुस्ताखी न करे बिना इजाजत के।

लघुकथा

अतिविश्वास में कि उसका होने वाला पति जो स्वयं भावी पीढ़ी को शिक्षित करने में लगा है उसके विचार को समझ कर कोई ठोस निर्णय लेगा, पिताजी के मना करने के बावजूद वो मिलने चली गई अपने भावी पति से। एक सुशिक्षित नौजवान जिसने रूपा को सतरंगी दुनिया की सैर करवाया था बेरंग और बेपर्दा हो गया। जब उसने कहा मुझे इतनी बुद्धिजीवी जीवनसंगीनी नहीं चाहिए जो हर क्षेत्र में सलाह दे। मैं अपने परिवार के निर्णय का सम्मान करता हूँ ।नग्न हो चुका था एक सुशिक्षित मर्द का पुरूष प्रधान विचार। समझ गयी कि हम दोनों का अलग हो जाना ही बेहतर है। और तत्क्षण मुक्त कर दिया पौरुषत्व के दंभ से भरे उस व्यक्तित्व को रिश्ते के उस क्षणिक बंधन से।

यह एक घातक मानसिक प्रहार था स्त्री की बुद्धिमत्ता पर। मैं भी हतप्रभ थी , क्या यह भी वजह हो सकती है इक बेटी को बहू के रूप में स्वीकार नहीं करने की।

अभी भी उन वाक्यों को दुहराते हुए रूपा के चेहरे के भाव सख्त हो गए। वापस आकर कुछ दिन तो कमरे में कैद रही। नैराश्य और बेबसी से भरा मन काफी निराशा में चला गया, पर जल्द ही खुद को संयत कर विवेक का दामन पकड़ उस अवांछित व्यक्ति के निकृष्ट प्रेम से स्वयं को मुक्त कर नए सिरे से अपने भविष्य निर्माण में जुट गई ।

उस सामाजिक परिवेश से मन में इस प्रण के साथ बाहर निकली कि लौट कर इन्हीं प्रबुद्ध वर्गों के बीच अपना कार्य क्षेत्र बनाउंगी जहाँ लड़की के रिश्ता टूटने पर तथाकथित प्रतिष्ठित वर्ग उसे हेय दृष्टि से देखते हैं।

दिल्ली आकर कुछ वर्ष सामाजिक संस्थान में काम की, फिर विदेश चली गई उच्च शिक्षा हेतु।

तीन साल बाद अपनी मिट्टी में वापस आई आत्मविश्वास से परिपूर्ण अपने पैतृक शहर में बच्चों की शिक्षा का बीड़ा उठाया ,पिताजी के सहयोग से शनैः शनैः अपने मकसद में कामयाब होती गई। आज एक समझदार सुलझे हुए व्यक्ति की पत्नी हूँ और दो प्यारे- प्यारे बच्चों की माँ ।

नियति का खेल ऐसा कि उन महाशय के बच्चे भी उसी के द्वारा संचालित विद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। रूपा अपने अतीत को उड़ेल कर नींद के आगोश में चली गई।

पर मेरी आंखें अनवरत उस चेहरे को निहार रही थीं जिसने अपने दुःख दायी पलों को सकारात्मक ऊर्जा से भरकर जीवन की छटाओं का आस्वादन लेना सीखा। रूपा उन सभी के लिए आज आदर्श हो सकती है जो जीवन के अप्रिय प्रसंग से घबराकर अपने दिव्य जीवन को निकृष्ट मान लेते हैं।

आज वही समाज रूपा की गरिमा और विद्वता से प्रभावित होकर उससे अपना परिचय बढाने के लिए लालायित रहता है।

मैं निश्चिन्तता में सोई इस रूपा को देख सात्विक भाव से उस प्रमाण को आत्मसात कर रही थी कि – “संकट और अड़चनें प्रभु उसी के मार्ग में बिखेरते हैं जिन्हें वह बुलंदियों तक पहुँचाने के लिए उपयुक्त मानते हैं ताकि इनसे जूझ कर वह अधिकाधिक परिष्कृत और परिमार्जित हो सकें। अपने अस्तित्व को एक मुकाम हासिल करवाने के लिए रूपा का लिया गया फैसला वाकई सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है। अंततः यही लग रहा नारी के रूप में स्व को कमजोर समझ कामना का दामन छोटा मत करो रस की निर्झरी सबके बहाए बह सकती है। बस जरूरत है अपने अस्तित्व की गरिमा को बरकरार रखने की।

– अंजना झा
फरीदाबाद, हरियाणा

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