पंडवानी छत्तीसगढ़ का वह एकल नाट्य है, जिसका अर्थ है पांडववाणी. यानी पांडवकथा. महाभारत की कथा. ये कथाएं छत्तीसगढ़ की पारधी तथा देवार छत्तीसगढ़ की जातियों की गायन परंपरा है. इस लगभग लुप्त हो रही लोक-कला को देश-विदेश तक पहुंचाने वाली तीजन बाई ही हैं. 12 साल की उम्र से जो जुनून सवार हुआ, वह आज तक जारी है. इकतारा की धुन पर पंडवानी को पूरी दुनिया में पहुंचाया. खूब नाम कमाया. देश-विदेश में कई सम्मान हासिल किए.
असल में, पंडवानी गायन शैली न होकर गीति-नाट्य शैली है और तीजनबाई इस गीति-नाट्य शैली की पहली महिला कलाकार. मशहूर रंगकर्मी बादल सरकार ने कभी सेटरहित मंच की अवधारणा दी थी. तीजनबाई की प्रस्तुति देखकर लगता है कि बादल सरकार की सेटरहित मंच की अवधारणा की सटीक उदाहरण ही नहीं, उस अवधारणा की प्रेरणा भी तीजनबाई स्वयं हैं. कह सकते हैं कि जैसे तीजनबाई और पंडवानी की नाट्य शैली एक मिश्रित कला है, ठीक वैसे ही तीजनबाई एक मिश्रित कलाकार हैं. वे स्वयं नायक भी हैं, नायिका भी, गायिका भी, निर्देशिका भी और अभिनेता भी. संवादों की लेखिका भी हैं और उनके अनुकूल बनी पात्र भी.
आयताकार बड़ा सा भारी-भरकम चेहरा. अपेक्षाकृत मझोली नाक, उनींदी सी छोटी-छोटी आंखें, पतले सुतवां होंठ और पान में सने दांत, आंखों के साम्राज्य को कपाल की सीमा में प्रवेश कराती और चौड़े कपाल के अधिकाधिक क्षेत्र को कब्जे में करती चौड़ी भौंहें, गालों के ऊपर और आंखों के नीचे उठे से दो गोलक जो नाक से विद्रोह कर अपनी ऊंचाई का लोहा मनवाना चाहते हों और असफल से होकर बैठ गए हों. तीजनबाई की मुखाकृति की यही स्थिति है. अगर यह कहा जाए कि महाभारत की जटिल कथा और पात्रों की अधिकता का निष्कर्ष तीजनबाई का चेहरा है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.
तीजनबाई कभी स्कूल नहीं गईं. वे खुद ही कहती हैं कि हमारे जमाने में लड़कियों का स्कूल जाना अच्छा नहीं मानते थे, सोचते थे, ऐसे भी खाना ही बना रही है, वैसे भी तो खाना ही बनाएगी, कभी नहीं भेजा गया हमें पढ़ने. सो भइया हम ठहरे निरच्छर, अंगूठा छाप. तीजनबाई के अभिनय में सबसे पहला सहायक है वह इकतारा. इकतारा एक अद्भुत साज है. एक तो वह सदा संतों के हाथ में दिखता है, दूसरे यह कि उसमें तार दो हैं और नाम इकतारा.
तीजनबाई का इकतारा विशेष है. मोर के पंखों से सजा वह इकतारा मंच पर द्वापर युग का प्रतिनिधि (कृष्ण) है. उसका लाल रंग महाभारत की रक्ताभा और महीन तार उस युग से आज तक के जीवन के शाश्वत स्पंदन का बोध कराते हैं. तीजनबाई के साथी कलाकारों में कोरस गाने वाले साजिंदे अपनी एक विशेष स्थिति रखते हैं. युद्ध की गर्जना और तुमुल कोलाहल की वाचिक अभिव्यक्ति की सजीवता में वे बाई के बहुत बड़े पूरक बन जाते हैं. उनमें विशेष हैं हारमोनियम मास्टर, गाने के साथ-साथ मंच पर विदूषक की भूमिका में उनका स्वर होता है. बाई यूं तो वैदुष्य कला में भी माहिर हैं, लेकिन हारमोनियम मास्टर का दखल लाजवाब है. बाई जब किसी पात्र को संबोधित करती हैं तो उनका ‘काए!’ कहना हंसाए बिना नहीं छोड़ता.
मन में यह सवाल कौंधता है कि पंडवानी के वे पद जो तीजनबाई और कलाकार गाते हैं, वे पारंपरिक हैं या तीजनबाई के बनाए हुए ? यह भी नहीं पता वह गायन शैली पारंपरिक है या बाई की स्वनिर्मित? लेकिन कथा का जो समायोजन जो प्रस्तुति में होता है, वह स्वयं में अद्भुत है.
Teejan bai