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भारत के स्थापत्य की जड़ें यहाँ के इतिहास, दर्शन एवं संस्कृति में निहित हैं। भारत की वास्तुकला यहाँ की परम्परागत एवं बाहरी प्रभावों का मिश्रण है। स्थापत्य व वास्तुकला के दृष्टिकोण से हड़प्पा संस्कृति तत्कालीन संस्कृतियों से काफ़ी ज़्यादा आगे थी। भारतीय स्थापत्य एवं वास्तुकला की सबसे ख़ास बात यह है कि इतने लंबे समय के बावजूद इसमें एक निरंतरता के दर्शन मिलते हैं। इस मामले में भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से भिन्न है।
कला की दृष्टि से हड़प्पा की सभ्यता और मौर्य काल के बीच लगभग 1500 वर्ष का अंतराल है। इस बीच की कला के भौतिक अवशेष उपलब्ध नहीं है। महाकाव्यों और बौद्ध ग्रंथों में हाथीदाँत, मिट्टी और धातुओं के काम का उल्लेख है। किन्तु मौर्यकाल से पूर्व वास्तुकला और मूर्तिकला के मूर्त उदाहरण कम ही मिलते हैं। मौर्यकाल में ही पहले-पहल कलात्मक गतिविधियों का इतिहास निश्चित रूप से प्रारम्भ होता है। राज्य की समृद्धि और मौर्य शासकों की प्रेरणा से कलाकृतियों को प्रोत्साहन मिला। इस युग में कला के दो रूप मिलते हैं। एक तो राजरक्षकों के द्वारा निर्मित कला, जो कि मौर्य प्रासाद और अशोक स्तंभों में पाई जाती है। दूसरा वह रूप जो परखम के यक्ष दीदारगंज की चामर ग्राहिणी और वेसनगर की यक्षिणी में देखने को मिलता है। राज्य सभा से सम्बन्धित कला की प्रेरणा का स्रोत स्वयं सम्राट था। यक्ष-यक्षिणियों में हमें लोककला का रूप मिलता है। लोककला के रूपों की परम्परा पूर्व युगों से काष्ठ और मिट्टी में चली आई है। अब उसे पाषाण के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया।
मौर्य काल के दौरान भारत में कई शहरों का विकास हुआ। मौर्यकाल भारतीय कलाओं के विकास के दृष्टिकोण से एक युगांतकारी युग था। इस काल के स्मारकों व स्तंभों को भारतीय कला के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है। इस काल के स्थापत्य में लकड़ी का काफ़ी प्रयोग किया जाता था। अशोक के समय से भवन निर्माण में पत्थरों का प्रयोग प्रारंभ हो गया था। ऐसा माना जाता है कि अशोक ने ही श्रीनगर (कश्मीर) व ललितपाटन (नेपाल) नामक नगरों की स्थापना की थी। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक ने अपने राज्य में कुल 84,000 स्तूपों का निर्माण कराया था। हालांकि इसको अतिश्योक्ति माना जा सकता है। स्थापत्य के दृष्टिकोण से सांची, भारहुत, बोधगया, अमरावती और नागार्जुनकोंडा के स्तूप प्रसिद्ध हैं। अशोक ने 30 से 40 स्तम्भों का निर्माण कराया था। अशोक के समय से ही भारत में बौद्ध स्थापत्य शैली की शुरुआत हुई।
इस काल के दौरान गुफाओं, स्तम्भों, स्तूपों और महलों का निर्माण कराया गया। अशोक के स्तम्भों से तत्कालीन भारत के विदेशों से संबंधों का खुलासा होता है। पत्थरों पर पॉलिश करने की कला इस काल में इस स्तर पर पहुँच गई थी कि आज भी अशोक की लाट की पॉलिश शीशे की भांति चमकती है। मौर्यकालीन स्थापत्य व वास्तुकला पर ग्रीक, फारसी और मिस्र संस्कृतियों का पूरी तरह से प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। परखम में मिली यक्ष की मूर्ति, बेसनगर की मूर्ति, रामपुरवा स्तम्भ पर बनी साँड की मूर्ति तथा पटना और दीदारगंज की मूर्तियां विशेष रूप से कला के दृष्टिकोण से अद्वितीय हैं।
गुप्त काल में कला की विविध विधाओं जैसे वास्तु, स्थापत्य, चित्रकला, मृदभांड, कला आदि में अभूतपूर्ण प्रगति देखने को मिलती है। गुप्तकालीन स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन मंदिर थे। मंदिर निर्माण कला का जन्म यहीं से हुआ। इस समय के मंदिर एक ऊँचे चबूतरें पर निर्मित किए जाते थे। चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर से सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था। देवता की मूर्ति को गर्भगृह में स्थापित किया गया था और गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा मार्ग का निर्माण किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों पर पार्श्वों पर गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आकृतियां बनी होती थी।
चोलों ने द्रविड़ शैली को विकसित किया और उसको चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। राजाराज प्रथम द्वारा बनाया गया तंजौर का शिव मंदिर, जिसे राजराजेश्वर मंदिर भी कहा जाता है, द्रविड़ शैली का उत्कृष्ट नमूना है। इस काल के दौरान मंदिर के अहाते में गोपुरम नामक विशाल प्रवेश द्वार का निर्माण होने लगा।सल्तनत काल में भारतीय स्थापत्य कला के क्षेत्र में जिस शैली का विकास हुआ, वह भारतीय तथा इस्लामी शैलियों का सम्मिश्रण थी। इसलिए स्थापत्य कला की इस शैली को ‘इण्डो इस्लामिक’ शैली कहा गया। कुछ विद्वानों ने इसे ‘इण्डो-सरसेनिक’ शैली कहा है। फ़र्ग्यूसन महोदय ने इसे पठान शैली कहा है, किन्तु यह वास्तव में भारतीय एवं इस्लामी शैलियों का मिश्रण थी। सर जॉन मार्शल, ईश्वरी प्रसाद जैसे इतिहासविदों ने स्थापत्य कला की इस शैली को ‘इण्डों-इस्लामिक’ शैली व हिन्दू-मुस्लिम शैली कहना उचित समझा।
पर्सी ब्राउन ने ‘मुग़ल काल’ को भारतीय वास्तुकला का ग्रीष्म काल माना है, जो प्रकाश और उर्वरा का प्रतीक माना जाता है। स्मिथ ने मुग़लकालीन वास्तुकला को ‘कला की रानी’ कहा है। मुग़लकालीन स्थापत्य कला के विकास और प्रगति की आरम्भिक क्रमबद्ध परिणति ‘फ़तेहपुर सीकरी’ आदि नगरों के निर्माण में और चरम परिणति शाहजहाँ के ‘शाहजहाँनाबाद’ नगर के निर्माण में दिखाई पड़ती है। मुग़ल काल में वास्तुकला के क्षेत्र में पहली बार ‘आकार’ एवं डिजाइन की विविधता का प्रयोग तथा निर्माण की साम्रगी के रूप में पत्थर के अलावा पलस्तर एवं गचकारी का प्रयोग किया गया। सजावट के क्षेत्र में संगमरमर पर जवाहरात से की गयी जड़ावट का प्रयोग भी इस काल की एक विशेषता थी।
puri duniya maane bhartiye stapitya kala ko